अरबों-खरबों खर्च हुए, मंगल पर यान गया,
जनता की आवश्यकता पर, किसका ध्यान गया,
इसी देश में गर्भवती महिलाएं ईंटें ढोतीं ,
दूर ग्रहों की खोज-ख़बर में, है विज्ञान गया,
मूलभूत सुविधाओं तक को, अब भी लोग तरसते,
अन्तरिक्ष में जा, झूठा, पाया सम्मान गया,
कौन कहे ये चक्रवर्ती, सम्राटों की धरती है,
बैरी घुस कर, सर काट सिपाही, निज स्थान गया,
धरे रह गये अग्नि-प्रथ्वी, अस्त्र नाभिकीय सारे,
धैर्य आवरण कायरता का, जग पहचान गया,
ध्यान चन्द को रत्न अभी तक समझ सका न भारत,
बल्ले-गेंद का इक नवयुवक,कहा महान गया,
देश चलातीं महिलायें, फिर भी क्यूं चलती बस में,
कहे कोई क्योँ ललनाओं का लूटा मान गया,
था जगद्गुरु और स्वर्ण चिड़ी कहलाता देश कभी ये,
आज असभ्य और निर्धन है, सारा धन-ज्ञान गया,
कभी देव भूमि था ये, आर्यावर्त-भरत खंड,
आज यहाँ पाया जाता घर-घर शैतान गया,
भरा पेट, हर बदन ढंका और इक छत हर सर पे,
“संजीव” अधूरा रह सपना और ये अरमान गया.........संजीव मिश्रा
जनता की आवश्यकता पर, किसका ध्यान गया,
इसी देश में गर्भवती महिलाएं ईंटें ढोतीं ,
दूर ग्रहों की खोज-ख़बर में, है विज्ञान गया,
मूलभूत सुविधाओं तक को, अब भी लोग तरसते,
अन्तरिक्ष में जा, झूठा, पाया सम्मान गया,
कौन कहे ये चक्रवर्ती, सम्राटों की धरती है,
बैरी घुस कर, सर काट सिपाही, निज स्थान गया,
धरे रह गये अग्नि-प्रथ्वी, अस्त्र नाभिकीय सारे,
धैर्य आवरण कायरता का, जग पहचान गया,
ध्यान चन्द को रत्न अभी तक समझ सका न भारत,
बल्ले-गेंद का इक नवयुवक,कहा महान गया,
देश चलातीं महिलायें, फिर भी क्यूं चलती बस में,
कहे कोई क्योँ ललनाओं का लूटा मान गया,
था जगद्गुरु और स्वर्ण चिड़ी कहलाता देश कभी ये,
आज असभ्य और निर्धन है, सारा धन-ज्ञान गया,
कभी देव भूमि था ये, आर्यावर्त-भरत खंड,
आज यहाँ पाया जाता घर-घर शैतान गया,
भरा पेट, हर बदन ढंका और इक छत हर सर पे,
“संजीव” अधूरा रह सपना और ये अरमान गया.........संजीव मिश्रा
भई वाह ... लाजवाब शेरों से सजी है गज़ल ... प्रश्न है हर शेर ...
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