इश्क़ के किस्से हुए पुराने हैं, हुस्न के भी बहुत अफ़साने हैं,
आओ के बैठें साथ मिल कर हम, मुद्दे कुछ और भी सुलझाने हैं......
ज़ीस्त आगे भी है, ऐ दोस्त मेरे, नाज़नीनों के इन रुखसारों से,
मिले माशूक़ से फ़ुर्सत , तो हाल दुनिया का, पूछ इन आज के अखबारों से,
तल्ख़ हालात मुल्क के हैं तेरे , उस हसीं ज़ुल्फ़ के साये बहुत सुहाने हैं....
देख क्या हाल बच्चियों का है, एक हैवान भी शरमा जाए,
नक्सली,अलगाव-वादी, आतंकी, क्या ये इस देश को हुआ जाये,
कौन सी हम सदी में जीते हैं, किस तरहा के ये ज़माने हैं.....
फ़ौज खुद ही नहीं महफूज़ यहाँ, घुस के दुश्मन ही मार जाता है,
और ये बेहया निज़ाम अपना, गीत खैरो-अमन के गाता है,
कोई बोलो इन्हें अभी वापस, सर जवानों के ले के आने हैं.....
बातें होती हैं चाँद मंगल की, आम इंसान नहीं दिखते हैं,
चन्द सिक्कों को और रोटी को, दुधमुहें बच्चे यहाँ बिकते हैं,
मादरीने वतन के दामन पे, हैं ये कुछ दाग़ जो मिटाने हैं........
देशभक्ति है अब नापैद हुई, क्षेत्रीयता भरी दिमाग़ों में,
किसको फ़ुर्सत है राष्ट्र की सोचे, व्यस्त हैं सब , निजी हिसाबों में,
कुछ न कुछ तो पड़ेगा अब करना, सोये अब लोग ये जगाने हैं.....
मुझको मालूम है के बेज़ा है, गूंगे-बहरों से मेरा कुछ कहना,
मुल्क ये, गाँव है इक अंधों का, होता मुश्किल है अब यहाँ रहना,
फ़िर भी "संजीव" देश मेरा है , सारे हथियार आज़माने हैं .......... संजीव मिश्रा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें