सब रूठ रहे हैं दोस्त मेरे
धीरे-धीरे,
सब झूठे रिश्ते टूट रहे
धीरे-धीरे,
था एक मुलम्मा चढ़ा हुआ हर
सूरत पर,
अब दिखते असली चेहरे हैं
धीरे-धीरे,
अपनों की गिनती घटी जाये
जीवन जैसी,
उम्र परायों सी बढ़ती धीरे-धीरे,
जो भी हंसकर के मिला, ग़ैर फिर
रहा वो कब,
ना-दानी जायेगी मेरी धीरे-धीरे,
कुछ क़र्ज़ महफ़िलों का मुझ पर
चढ़ बैठा था,
तन्हाई चुकाएगी सब अब, धीरे-धीरे,
सब मौसम के थे फूल, खिले थे
कुछ दिन को,
वीरानी पड़ी दिखायी है अब धीरे-धीरे,
हर चीज़ वक़्त के साथ बदल ही
जाती है,
तुम समझोगे “संजीव”, मगर
धीरे-धीरे.... संजीव मिश्रा
खुबसूरत अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे सब कुछ हो जाता है ... सब कुछ बदल जाता है ...
जवाब देंहटाएंअच्छे शेर हैं सभी ...