शनिवार, 16 नवंबर 2019

...........मेरी बाँहों की माला

मेरी बाँहों की माला


तुम सुन्दर उर्वशी भांति मैं इंद्र देव सा मतवाला,
प्रणय भाव  में नर्तन होता मद मोहित करनेवाला,
तुम बिन मैं और मुझ बिन तुम हैं आधे और अधूरे से,
तुम सुन्दरता की अग्नि मैं प्रेम-प्यार की हूँ ज्वाला,

तुम यदि मादकता हाला की, मैं सोने का हूँ प्याला,
पड़ा नहीं अब तक शायद तुम-हारा हम जैसों से पाला,
तुम क्या हो हम जिसको चाहें उसकी क़ीमत बढ़ जाए,
इक काली सी लड़की को मजनूं ने लैला कर डाला,

हमको भी तुम यूं ही कोई ऐसा वैसा न समझो,
जिसको हमने चुना  कभी उसको अपना ही कर डाला,
मेरे आलिंगन में है कुछ ऐसा अदभुत अमरत्व छिपा,
लालायित कितनीं  पाने को मेरी बांहों की माला,

हूँ, ऊपर से फ़रहाद-ओ-राँझा, मन भीतर बैरागी वाला,
अब  रंग सभी  स्वीकृत जीवन के, सुनहैरा या हो काला,
तुम चाहे कुछ भी समझो पर, ये “संजीव” समझता है,
जीवन दुःख था, जीवन दुःख है, जीवन दुःख देने वाला.......  संजीव मिश्रा

गुरुवार, 30 मई 2019

सोचना पड़ा......

सोचना पड़ा......

देखा जो आज आइना, तो सोचना पड़ा,
जो दिख रहा है सामने, वो क्यूँ उदास है,

नाक़ामियाँ-ज़िल्लत-ओ-ग़ुरबत, बिगड़ा मुक़द्दर,
क्या चीज़ है जो आज नहीं इसके पास है,

आंख इक अश्क़ों भरी है चीज़ मामूली,
मेरी हँसीं में है छिपा जो दर्द, ख़ास है,

प्यास-भूख और नींद तो हैं साथ हमेशा,
जो खो गयी कमबख्त वो इक चीज़, आस है,

संजीव को कुछ था भरोसा अपने आप पर,
अब घूमता खोये हुए होशो-हवास है।

देखा जो आज आइना, तो सोचना पड़ा,
जो दिख रहा है सामने, वो क्यूँ उदास है।  ........ संजीव मिश्रा

रविवार, 5 मई 2019

सारे दांव............

सारे दांव............

जेठ दुपहरी, नंगे पाँव,
सर न छतरी न कोई छाँव,
दूर-दूर तक निर्जन पथ है,
न कोई नगरी, न कोई गाँव ।


चलते जाना ही नियति है,
क्रूर समय की बहुत गति है,
सब पड़ाव पर अपने-अपने,
अपने हिस्से ठौर न ठाँव......


सभी प्रयास असफल ही निकले,
निठुर दैव के भाव न पिघले,
कर्म -भाग्य की बिछी थी चौसर,
उल्टे बैठे सारे दाँव......


जेठ दुपहरी, नंगे पाँव....... संजीव मिश्रा