गुरुवार, 26 सितंबर 2013

क़सम खाए हैं.....

जिये जाते हैं  बस, उनकी ख़ुशी की ख़ातिर,
के जो दुनिया में, बस मेरे ही लिए आये  हैं,

बहुत क़रीब हैं दिल के वो, मगर उनसे भी,
वो क्या जानें के हम, क्या-क्या रहे छिपाए हैं,

क्या-क्या चाहा था कि करूँगा मैं, वास्ते उनके,
करें तो  क्या के, इक मुक़द्दर ख़राब लाये है,

मेरी तदवीरों  के वो सारे किले तोड़ गयी,
लड़ के तकदीर से जो हमने कभी बनाए हैं,

कोई चाहे न सराहे “संजीव” हम फिर भी,
यूं ही ताउम्र लिखे जाने की क़सम खाए हैं.....

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

या हमारे लिए......



खेल है ज़िन्दगी इक तुम्हारे लिए,
जेल है उम्र भर की हमारे लिए,

अहमियत दोस्तों की तुम्हें कुछ नहीं,
मेल है आत्मा का हमारे लिए,

तुमको क्या है ख़बर , कौन मिट बैठा है,
कौन क्या है यहाँ पर हमारे लिए,

न ही समझे हो तुम, न समझ पाओगे,
किसको भेजा ख़ुदा ने हमारे लिए,

आज आओ चलो, हम करें फ़ैसला,
तुम हो “संजीव” के या हमारे लिए......

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

कब निकलना है........



दिन  नया   हाज़िर  है फ़िर से इम्तेहां नये लेकर,
कितने  आज़ाब से, न जाने,   फ़िर गुज़रना  है,

अपने मेयार ज़िंदगी के जिबह करने होंगे,
दूसरों के ही  उसूलों पे फिर से चलना है,

फ़िर मुझे शाम तलक़ बस येही इन्तेज़ार होगा,
कैसे दिन ढलता है और दफ़्तर से कब  निकलना है,

जाने क्या बात है, सबकी तरह न जी पाया,
रोज़ यहाँ  आग में बस एक नयी जलना है,

जाने किस तरहा से ये दुनिया गयी बनायी है,
सिर्फ़ संजीवकी ही क़िस्मत में हाथ मलना है..........

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

यही कुछ क्या कम था.......

तनहा -तनहा        शामें,   रातें   वीरानी,
दिन उजड़े -उजड़े से हर पल  मातम सा,

क्यों इतनी बड़ी सज़ा, ख़ता छोटी सी थी,
पाना   जो   चाहा   था, उसका दामन था,

छोड़ दो मुझको  हाल मेरे, मत खेलो अब,
कल फ़िर  तेरी बातों में कुछ अपनापन था,

विरह की लम्बी उम्र, बद-दुआ सा जीवन,
जी पाया "संजीव" यही कुछ क्या कम था..
.....

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बड़ा भारी गुज़रता है......

सुबह के तीन बजते ही, उठो और भागो औफ़िस को,
बस हफ़्ते का ये पहला दिन बड़ा भारी गुज़रता है,

वो नौ से पांच तक का वक़्त तो कट जाता है लेकिन,
सफ़र ये  चार घंटे का  बड़ा भारी गुज़रता है,

बड़ा अच्छा सा लगता है शनीचर को घर आ जाना,
मगर सोमवार का जाना बड़ा भारी गुज़रता है,

ये माना ज़िन्दगी में मेहनतें करनी ही पड़ती  है,
मुक़द्दर साथ न दे जब, बड़ा भारी गुज़रता है,

अलग वो लोग हैं जो हैं कमा पाते सुकूं से कुछ,
मगर "संजीव" को ये सब बड़ा भारी गुज़रता है........

शनिवार, 7 सितंबर 2013

तेरे पास मैं फिर आऊंगा.......



रेलगाड़ी में हूं, अकेला हूँ डिब्बे में, कुछ उकता रहा हूँ,
हफ़्ते का आख़िरी दिन है, आज घर जा रहा हूँ,

शाम ढल चुकी है, रात के आठ बज जाने को हैं,
खिडकी से आती हवा दिलक़श मालूम होती है,

रेल  गुनगुनाती सी कुछ ऐसे चलती  जाती है,
जैसे कमसिन कोई सखियों  से कुछ बतियाती है,

कभी फुसफुसाती है दबे सुरों में कुछ आहिस्ता से,
और ठहाकों सी कभी सीटियाँ बजाती है,

अँधेरा हो चला है,  तारे कुछ यूं  दिखाई देते हैं,
जैसे जंगल  में स्याह पेड़ों की उंची शाखों पर,

जुगनुओं का कोई जलसा सा , कोई मजलिस हो,
समां खूबसूरत सा है पर दिल नहीं लुभाता है,

रेल रुक रुक के चल रही है कुछ पडावों पर,
मुझको मुसलसल सिरफ तेरा ख़याल आता है,

जिस  क़दर टूट मुझे तूने मुहब्बत की है,
मेरा था फ़र्ज़ दिलो जां से तेरा हो रहता,

जैसे तू मुझपे है सौ जान से निछावर यूं,
मेरे भी दिल में सिवा तेरे, न और कोई रहता,

नहीं रहना  था मुझे मसरूफ उसकी बांहों में,
नहीं बितानी थीं शामें मुझे उसकी उन पनाहों में,

न ढूंढना था सुकूं मुझको उसकी ज़ुल्फ़ तले,
न बितानी थी ज़िंदगी ये उसकी चाहों में,

मैंने रातें बिताईं हैं आगोश में जिसके,
वो मेरे सुख की है साथी, न दुःख की हो सकती,

आज एहसास है के प्यारी वो भले कितनी हो,
नहीं तुझसी वो,शरीक़े-हयात हो सकती,

आज शर्मिन्दा हूँ दिल से, मैं अपनी हस्ती पर,
जो तेरा हक़  था, वही तुझको  दे नहीं पाया,

ऐशो-आराम  न दे पाया तुझे दुनिया के,
और क्या देता तुझे मैं वफ़ा न दे पाया,

मुझको करना मुआफ़,  इन मेरे अज़ीम गुनाहों पर,
मैं भी कोशिश करूं कि रहूँ सिर्फ, तेरी राहों पर,

आज बस इतना ही कह पाऊंगा ऐ मेरे हमदम,
साथ आऊंगा मैं तेरे अब मिला क़दम से क़दम,

रेल रुकने को है, पर सफ़र ज़िन्दगी का बाक़ी है,
और सफ़र ये,  तेरे  अब साथ मैं बिताऊंगा,

माना कल लौट कर आना है मुझे फिर वापिस,
उदास मत होना , तेरे पास मैं फिर आऊंगा.......