इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं....
मैं शाम ठिठुरता सर्दी में, जब कमरे अपने आता हूँ,
इक प्याली काली कॉफ़ी की, जब अपने लिये बनाता हूँ,
तब तुम स्मृति में आती हो,के जब हम
साथ में होते थे,
तुम सदा मेरा प्याला पहले, तब पानी
गरम से धोते थे,
तब चाय साथ पी हम दोनों ,कुछ अच्छे सपने बुनते थे
और तुमसे दिनभर की बातें, हम हाँ-हूँ करते सुनते थे,
अब कोई न कहने वाला है, यहाँ कोई न सुनने वाला है,
हम निपट एकाकी कमरे में, रहते हैं, कोई बात नहीं....
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं..........
तुम उधर अकेली सर्दी में, इस विरह अग्नि में तपती हो,
कब शनिवार आये तो मिलें, तुम चुप-छुप रोज़ सिसकती हो,
ये कम्बल, चादर और लिहाफ़, कब सर्दी से लड़ पाते हैं,
जब तुम बांहों में होती हो, कब माघ और पूस सताते हैं,
बस मात्र निकटता तुमहारी, मौसम सब सुखप्रद करती है,
तुम बिन सारी सुविधाएं भी, बन कर इक बोझ अखरती हैं,
हम साथ में फ़िर होंगे इक दिन, ये विरह के दिन भी बीतेंगे,
मन से हैं निकट हमेशा हम, तन दूर हैं कोई बात नहीं....
इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं...... संजीव मिश्रा
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