बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

सिर्फ़ कल सा लगता है....



उनका   चेहरा     कँवल     सा   लगता है,
इक      मुक़म्मल    ग़ज़ल  सा   लगता है,

उनके    बारे    में      सोचना    अब तो,
इक     ख़ुदाई     अमल   सा   लगता  है,

दुनिया   है    इक   सवाल     अन सुलझा,
उनका    दामन    ही,    हल  सा लगता है,

याद      में   उनकी     बहा   हर  आंसू,
मुझको गंगा   के      जल    सा लगता है,

ये फ़लक, ये हिमाला    भी,  चाहे टल  जाये,

प्यार    मेरा   अचल   सा      लगता   है,

उनकी      चाहत   में   दिल   हुआ मंदिर,
घर    मेरा     इक     महल  सा लगता है,

तुम    मेरे    उपनिषद    हो,    गीता  हो,
तुमसे    जीवन     सफ़ल    सा   लगता है,

है   ये   “संजीव”  तुम्हारा  ही कई जन्मों से,
तुमको  रिश्ता  ये क्यों, सिर्फ़ कल सा लगता है....

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

रहते हैं “संजीव” छिपे .........

भीतर भीतर जेठ दुपहरी बाहर मौसम सावन का,
तुम क्या जानों इन मुस्कानों के पीछे कितने दर्द छिपे,

यूं तो मैं आवारा भंवरे सा फ़िरता सा दिखता हूँ,
मेरे इन दुर्बल काँधों में  , हैं कितने भारी फ़र्ज़ छिपे,

मैं तुमसे खुलकर मिलता हूँ इसका यह अभिप्राय नहीं,
के भूल गया अपने प्रियतम को, जो अंतस में रहें छिपे,

पीर छिपाये दुनिया भर की हंस के बात तो करते हैं,
तुम क्या जानों कितने अश्कों, के हैं अन्दर क़र्ज़ छिपे,

मैं अपना अवसाद छिपाने को सामजिक बनता हूँ,
वरना बैरागी बनकर मैं हूँ दुनिया से रहा छिपे,

ये जग बस इक खेल मदारी, रोज़ तमाशे, स्वांग नए,
भीतर द्रष्टि, बाहर आँखें, प्रकट है माया , सत्य छिपे,

तुम मुझको इक हाड़-चाम का पुतला सिरफ़ समझते हो,
कुछ अभिशप्त फ़रिश्ते अन्दर रहते हैं “संजीव” छिपे .........संजीव मिश्रा

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

तेरे नाम करता हूँ

तुम्हारी भावनाओं की मैं कुछ यूं क़द्र करता हूँ,
तुम्हारे साथ करवा चौथ का व्रत मैं भी रखता हूँ,

नहीं तुम ये समझ लेना सिरफ तुमको मुहब्बत है,
दिखा मैं दिल नहीं सकता के कितना प्यार करता हूँ,

ज़रुरत क्या मुझे किस चीज़ की, जब सामने तुम हो,
तुम्हीं पर बस शुरू, तुम पर ख़तम, सब काम करता हूँ,

पिलाऊँ शाम को जब पानी मैं, मुझको पिलाना तुम,
समापन इस तरह इस व्रत का मैं इस शाम करता हूँ,

मैं तेरा हूँ,  इसी बस बात पर है फ़ख्र इक मुझको,
तू मेरी है मैं इस  सौभाग्य का सम्मान करता हूँ,

तू मेरे साथ खुश  रहती है मेरी तंगहाली  में,
शिकायत तू कभी कुछ कर, बड़ा अरमान  करता हूँ,

हूँ मुफ़लिस, पैसे कुछ कम हैं, मगर दिल का मैं राजा हूँ,
मैं रानी साहिबा को सर झुका परणाम करता हूँ,

तेरे “संजीव” का तुझको यही तोहफ़ा है छोटा सा,
मेरी अर्धांगिनी ख़ुद को मैं तेरे नाम करता हूँ....... संजीव मिश्रा

dedicated to my Dear Wife... :)

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

साया था....



आज फिर दिन है वही, के दुनिया में जब मैं आया था.
यूं  ही   घुट   घुट के जिये  जाने की सज़ा पाया था,

रहूँगा   ज़िन्दा   मगर,    ज़िन्दगी   को   तरसुंगा,
साथ   अपने   मैं,   ख़ुदा   की   ये  रज़ा लाया था,

ऐसे     कुछ    बीती    है   अब तलक उमर ये मेरी,
ज्यों   कोई    मुझको   मिटाने   की क़सम खाया था,

जो   भी   चाहा,   वो  ही खोया था , खेल था कैसा ,
जो   किया   मैंने,  कहीं-कुछ   भी, वो सब ज़ाया था,

मैंने   चाहा   कि  जियूं   मैं   भी   सभी  की तरहा,
करूँ   तो    क्या  के    इक   वक़्त  बुरा  छाया था,

तेरा   “संजीव”   कभी,  पा   सका   न कुछ भी कहीं ,
मेरी  तद्वीरों    पे,   नाक़ामियों   का    साया   था .

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

ख़ुदाई से गिले होंगे.......

दिवाली आयेगी  फ़िर  दिल जलाने कुछ ग़रीबों का,
कहीं  चूल्हे  बुझे  होंगे,   कहीं  दीपक  जले होंगे,

कहीं  कुछ  भूखे  बच्चे सोयेंगे बस डांट खा माँ की,
बहुत  अरमां   पटाखे  बन  के  धूएँ में मिले होंगे,

तुम्हारा क्या है तुम पर तो  ख़ुदा है मेहरबां दिल से,
तुम्हें   कपड़े    नए,  जूते   फटे हमने सिले होंगे,

दिवाली  की  अमावस में  तू  होना चाँद सी रौशन,
खिज़ां  के  फूल  ठहरे  हम, बियाबां में खिले होंगे,

ज़रा  सा  सोचना  हर इक धमाका कर के तुम थोड़ा,
मकां  किस  तरहा  से  कितने  ग़रीबों के हिले होंगे,

न हो जब तक, हर इक घर में चरागाँ , पेट भर रोटी,
ख़ुदा  “संजीव”   को  तेरी  ख़ुदाई   से  गिले  होंगे.......

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

कल फ़िर ईद है कोई....



सनम का चाँद सा चेहरा, न हो जब तक निगाहों में,
कहाँ  ईदुलज़ुहा  तब  तक  ,  कहाँ बकरीद है कोई,

सुबह   उठ  कर   नहाकर सामने आये तो है पूनम,
वही  मावस जो  जुल्फें  डालकर रुख़ पे हो वो सोई,

वो जब  बांहों  में   हों  मेरी,  शबे-बारात है वो ही,
सभी त्यौहार  उस दिन, जब, सजी उम्मीद  हो कोई,

ख़ुदा  के  नाम  से  पहले  अता उसको मेरा सज़दा,
कोई  है  क़ुफ्र   कहता  और  कहे  दीवानगी  कोई,

वो  हो जो  दूर   तो आलम मुहर्रम सा ये लगता है,
वो   दीखे  तो  लगता है पितर का पक्ष हो कोई,

तेरे  “संजीव”  की  हालत  बताऊँ क्या भला तुझको,
चले  आओ  बताते  हैं  कि  कल  फ़िर ईद है कोई........संजीव मिश्रा