मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

कैदी सा जिए जाते हैं ....... २

मैं हूँ इंसान इक नाचीज़ और अदना सा ,
मैं हूँ इक शख्सियत कमज़ोर और कमतर सी ,
एक तस्वीर हूँ बेरंग , एक गुल बे-बू ,
जो भी है कुफ्र खुदा का है , सहे जाते हैं ।


कोई भी फ़न नहीं मुझमें जिसे मैं बेच सकूं ,
तमाम दुनिया में मेरा तो कुछ भी मोल नहीं ,
नहीं है मेल ज़रा सा मेरा और दुनिया का ,
एक बेमेल सी संगत ये किए जाते हैं ।


हमसे उम्मीद लोग करते हैं शाद रहने की ,
पूछते हैं वज़ह हमसे उदास रहने की ,
वो हैं मासूम और नादाँ उन्हें ख़बर है क्या ,
जाम नाकामी के ऐसे ही पिए जाते हैं ।


रोज़ ज़िल्लत के यहाँ घूँट पीने पड़ते हैं ,
रोज़ सौ बार यहाँ किश्तों में मरना पड़ता है ,
रोज़ एक हिस्सा खुदी का फ़ना हो जाता है ,
रोज़ इस ज़ीस्त का हम सोग किए जाते हैं ।


रोयां - रोयां ये पूछता है तू क्यों ज़िंदा है ,
रगों में बहता हुआ लोहू तलक शर्मिंदा है ,
लगती है दिल की हरेक धड़कन भी अब तो गाली सी ,
बद - दुआ जैसी हरेक साँस लिए जाते हैं ।

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

क़ैदी सा , जिए जाते हैं ........१

सब यहाँ कैसे खिलखिलाते हैं ,
कैसे जी भर तबस्सुम यहाँ लुटाते हैं ,
देख न ले कहीं तक़दीर हमको हँसते हुए ,
अपने होठों की मुस्कुराहट भी हम छुपाते हैं ।

कुछ को दुनिया है ये मैदाने-खेल की तरहा ,
और कुछ को है ये ऐशो-आराम की जगहा ,
आए हैं कुछ यहाँ बा - इज्ज़त एक न्यौते पर ,
हमारे जैसे तो क़ैदी से लाये जाते हैं ।

हमको हक़ है नहीं दिया गया कुछ जीने का ,
हमको है दी गयी सज़ा ये ज़िंदा रहने की ,
हमको न दी गयी इजाज़त है कुछ भी कहने की ,
क़ैद में हैं हम , क़ैदी सा , जिए जाते हैं ।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

कुछ रेत जैसी खुशियाँ .........भाग २

तुमको भला ख़बर क्या ,
जो ज़िन्दगी जीता हूँ ,
हैं धड़कनें शर्मातीं ,
साँसें लगीं लजाने ।

मेरी ज़िन्दगी बेमानी ,
मेरा वज़ूद है बेमतलब ,
मुझे ज़मीन ने दुत्कारा ,
ठुकराया आस्मां ने ।

मुझमें न कुछ है बाक़ी ,
जो कुछ है क़लम में है ,
ज़िंदा रखे हूँ ख़ुद को ,
मैं लिखने के बहाने ।


मावस की रात जैसी
है ज़िन्दगी बिताई ,
हैं अंधेरे इतने देखे ,
उजाले लगे डराने ।

मेरी क़ब्र पर भी कोई ,
न चिराग़ तुम जलाना ,
कुछ बुझी हुई शमाएँ ,
रखना मेरे सिरहाने ।


मैं नहीं निराशावादी ,
मुझे ऐसा न समझना ,
बस वो ही दे रहा हूँ ,
जो दिया मुझे जहाँ ने ।

ऐसा ही नहीं था मैं ,
हँसता था मैं , गाता भी ,
क़िस्मत को रास आए न
" संजीव " के तराने ।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

कुछ रेत जैसी खुशियाँ ..........

दोज़ख़ हो देखनी ग़र ,
तो मुझको देख ले तू ,
इक ज़िन्दा मिसाल हूँ मैं ,
तेरे सामने ज़माने ।

कुछ रेत जैसी खुशियाँ
हैं बस तेरी मुट्ठी में ,
मैंने दिल में छुपा रखे हैं ,
ग़म के कई ख़जाने ।

क्यूँ वक़्त ज़ाया करता
है दुनिया के तरानों में ,
फ़ुर्सत से आ किसी दिन ,
और सुन मेरे फ़साने ।

मैं याद करता आया ,
ता - उम्र जिस ख़ुदा को ,
वो ख़ुदा कहाँ छुपा है
ये तो ख़ुदा ही जाने ।


सुनता है वो सभी की ,
कुछ देर भले हो जाए ,
दुनिया ये मानती हो ,
“संजीव ” तो न माने ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

ज़िन्दगी है प्याला ..............भाग ३

प्याले बनाए बिन - गिन ,
मय नाप कर बनायी ,
कहीं इतनी , कि छलक जाए ,
कहीं गंध भी न आयी ,

भरे ज़्यादतरमें आंसू ,
कुछ में ही है शराब ।



प्याला न तोड़ सकते ,
उम्मीद अभी बाक़ी है ,
इक दिन तो पिलाएगा वो ,
आख़िर को वो साकी है ,

प्याला दिया तो उसका -
है फ़र्ज़ , दे शराब ।


पर हो भरा या खाली ,
प्याला तो टूटना है ,
साकी को एक दिन तो ,
सब से ही रूठना है ,

उस दिन न कुछ बचेगा ,
ना प्याला ना शराब ।


तरसा हूँ मैं इतना , के
अब प्यास खो गयी है ,
यूँ ही तड़पने की अब
आदत सी हो गयी है ,

सब लगता है मुझको झूठा ,
क्या प्याला क्या शराब ।


ज़िन्दगी है प्याला ,
तक़दीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो
उतना ही क़ामयाब ।


रविवार, 30 नवंबर 2008

जिंदगी है प्याला ......भाग २


प्याला न ख़राब कोई
न कोई भला प्याला ,
इक खेल खेलता है ,
सबसे पिलाने वाला ,

इक में लबालब , इक में
इक बूँद न शराब ।


जिसे जितनी मिल गयी वो ..........

कोई है नशे में सोता ,
कोई जागता है भूखा ,
कहीं मखमली हैं बिस्तर ,
कहीं कौर भी न रूखा ,

क्यों प्याला दे दिया , जब
देनी न थी शराब ।

जिसे जितनी मिल गयी वो ..........

हम भी तरस रहे हैं ,
पाने को चंद बूँदें ,
हम मांगकर थके , वो
बैठा है कान मूंदे ,

शायद हमारा प्याला
ना - काबिले शराब ।

ज़िन्दगी है प्याला
तकदीर है शराब
जिसे जितनी मिल गयी
वो उतना ही कामयाब

सोमवार, 17 नवंबर 2008

उदासी की हवेली है........ भाग १

ज़िन्दगी पहेली है ,
ग़म की इक सहेली है ,

महफ़िलों ने ठुकराया ,
तनहाईओं में खेली है ,

मायूसियों की नीवों पर ,
उदासी की हवेली है ,

चहलो – पहल के जमघट में ,
ज़िन्दगी अकेली है .

शनिवार, 15 नवंबर 2008

जिंदगी है प्याला ........ भाग १

जिंदगी है प्याला ,
तकदीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो
उतना ही कामयाब ।


जिसका भरा है प्याला ,
बस वो ही है निराला ,
उसने भुलाया सबसे ,
पहले पिलाने वाला ,



वो समझा मैंने प्याले ,
में ख़ुद भरी शराब ।
ज़िन्दगी है प्याला........ ।

जिसका है प्याला खाली ,
दर - दर का वो सवाली ,
उस खाली पर भरा हर -
प्याला बजाता ताली ,


कहते ख़राब प्याला ,
नापे बिना शराब। ज़िन्दगी है प्याला........ ।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

तुझसे बिछड़ने की घड़ी जब आएगी ........

तुझसे बिछड़ने की घड़ी जब आएगी ,
जान कैसे जिस्म में रह पायेगी ,
हर पल यही सदा क़त्ल मुझको करे,
तू जायेगी, तू जायेगी, तू जायेगी ।

तू चली जायेगी मैं रह जाऊँगा ,
गम भला कैसे ये मैं सह पाउँगा ,
रास्तों तुम कितने खुश नसीब हो ,
मैं कहाँ उन क़दमों को चूम पाउँगा ,

ख्वाब में ही दीद अब होगा तेरा ,
तू कहाँ हद्दे नज़र में आएगी ।

तेरे बगैर साँस गर चलती रही ,
ज़िन्दगी उसको न मैं कह पाउँगा ,
पहलू मैं तेरे ,आज मर जाऊं मगर ,
तेरे बिना ज़िंदा नहीं रह पाऊंगा ,

जाना तेरा देखूंगा इन आंखों से मैं ,
किस्मत मेरी अब और क्या दिखलाएगी ।

हरपल यही सदा क़त्ल मुझको करे ,
तू जायेगी , तू जायेगी , तू जायेगी ।


सदा = आवाज़

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

वो चाँद ढल रहा है

वो चाँद ढल रहा है ,
इधर मेरी ज़िन्दगी ,
ये रात आखिरी है ,
तेरे मेरे साथ की ।

मैं तेरे क़दमों की ,
ख़ाक भी न पा सका ,
चूमेगा कोई मेहंदीयां ,
तेरे हाथ की ।

खार भी राहों के तेरी ,
मैं न चुन सका ,
बिंदिया सजायेगा कोई ,

तेरे माथ की ।

तेरे बिना अब ज़िन्दगी ,
न बीत पाएगी ,
तुझसे जो पहले कट गयी,
वो और बात थी ।

दो चार दिन की बात हो तो ,
कोई काट ले ,
मुझको तो मिलनी है सज़ा ये ,
ता - हयात की ।

ख़ाक = धूल, खार = कांटे , ता - हयात = पूर्ण जीवन

रविवार, 2 नवंबर 2008

तेरे हुस्न की शराब से

तू हुस्न है मग़रूर है ,
मैं इश्क हूँ ,मजबूर हूँ ,

तेरे सामने भले नहीं ,
पर छिपा -छिपा तो ज़रूर हूँ ।

तेरे हुस्न की शराब से ,
जो चढा है , मैं वो सुरूर हूँ ,

क़दमों में जो गिरा तेरे ,
उस शख्स का गुरूर हूँ ,

तू हूर है जन्नत की तो ,
मैं भी खुदा का नूर हूँ ,

तेरे हुस्न के चर्चे हैं तो ,
मैं इश्क में मशहूर हूँ ।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

मुश्किलाते-हज़ार हो गया हूँ मैं ,

ख़ुद अपने आप से ,बेजार हो गया हूँ मैं,

इससे बढ़कर सज़ा क्या दूँ ख़ुद को,

जीने को तैयार हो गया हूँ मैं.
 
....संजीव मिश्रा 

आह लगती है

कभी हंसता हूँ तो वो हँसी भी , इक आह लगती है,

खुशी की चाहत भी मुझको , इक गुनाह लगती है ,

जिसकी मंजिल हो सिर्फ़ नाकामी ,

जिंदगी मेरी मुझे ऐसी राह लगतीहै।

जब हवा झूम-झूम चलती है......





जब घटा आसमां पर छाती है , मेरी यादों से ग़म बरसता है,
जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है।


दूर जब कोई गीत सुनता हूँ , एक उदासी सी चली आती है ,
चांदनी बादलों से छन-छन के , मुझमें इक आह सी जगाती है,
तारे सब मुझपे मुस्कुराते हैं , चाँद छुप-छुप के मुझपे हंसता है।


जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है।


मुझमें क्या दर्द है जो पलता है , आज तक मैं समझ नहीं पाया,
जिसको कर याद कुछ सुकूं पाऊं ,मुझको वो ख्वाब तक नहीं आया,
मेरा दामन है पकड़े मायूसी , ग़म मेरे साथ -साथ चलता है .


जब हवा झूम -झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है ।


लोग खुशियाँ कहाँ से लाते हैं , ख़ुद से अक्सर सवाल करता हूँ,
सूनी आंखों से देखता रहकर , देर तक सोच में गुम रहता हूँ ,
जब , बांह बांहों में डाल राहों में , कोई जोड़ा हसीं निकलता है .


जब हवा झूम - झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है