मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

मुश्किलाते-हज़ार हो गया हूँ मैं ,

ख़ुद अपने आप से ,बेजार हो गया हूँ मैं,

इससे बढ़कर सज़ा क्या दूँ ख़ुद को,

जीने को तैयार हो गया हूँ मैं.
 
....संजीव मिश्रा 

आह लगती है

कभी हंसता हूँ तो वो हँसी भी , इक आह लगती है,

खुशी की चाहत भी मुझको , इक गुनाह लगती है ,

जिसकी मंजिल हो सिर्फ़ नाकामी ,

जिंदगी मेरी मुझे ऐसी राह लगतीहै।

जब हवा झूम-झूम चलती है......





जब घटा आसमां पर छाती है , मेरी यादों से ग़म बरसता है,
जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है।


दूर जब कोई गीत सुनता हूँ , एक उदासी सी चली आती है ,
चांदनी बादलों से छन-छन के , मुझमें इक आह सी जगाती है,
तारे सब मुझपे मुस्कुराते हैं , चाँद छुप-छुप के मुझपे हंसता है।


जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है।


मुझमें क्या दर्द है जो पलता है , आज तक मैं समझ नहीं पाया,
जिसको कर याद कुछ सुकूं पाऊं ,मुझको वो ख्वाब तक नहीं आया,
मेरा दामन है पकड़े मायूसी , ग़म मेरे साथ -साथ चलता है .


जब हवा झूम -झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है ।


लोग खुशियाँ कहाँ से लाते हैं , ख़ुद से अक्सर सवाल करता हूँ,
सूनी आंखों से देखता रहकर , देर तक सोच में गुम रहता हूँ ,
जब , बांह बांहों में डाल राहों में , कोई जोड़ा हसीं निकलता है .


जब हवा झूम - झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून रिसता है