निर्धन की सर्दीयों सा कुछ जीवन रहा,
तन, सुविधा की पाये रजाई, बिन रहा,
संपत्ति की न, तापने को आंच थी,
सुख की सुनहरी धूप में, न मन रहा,
ठिठुरन अभावों की, सताती ही रही,
समस्याओं के कोहरे में, छाया दिन रहा,
दुर्भाग्य की खिड़की, खुली, बंद न हुई,
हवा असफलता की से, काँपता हर छन रहा,
क्षमता उठाने की थी, बस इक लेखनी,
दायित्व कन्धों पर सदा, इक मन रहा,
ज़रुरत की बरफ गिरती, जमाती ही रही,
कम, गर्म कपड़ों सा, हमेशा धन रहा,
चादर है बस इक योग्यता-विश्वास की,
न खूं जम पाया, कुछ, अपनों का अपनापन रहा,
भले ही ज़िंदगी मुश्किल है पर “संजीव” मैं,
झुका हूँ न झुकूँगा, है ये मेरा प्रन रहा........... संजीव मिश्रा
तन, सुविधा की पाये रजाई, बिन रहा,
संपत्ति की न, तापने को आंच थी,
सुख की सुनहरी धूप में, न मन रहा,
ठिठुरन अभावों की, सताती ही रही,
समस्याओं के कोहरे में, छाया दिन रहा,
दुर्भाग्य की खिड़की, खुली, बंद न हुई,
हवा असफलता की से, काँपता हर छन रहा,
क्षमता उठाने की थी, बस इक लेखनी,
दायित्व कन्धों पर सदा, इक मन रहा,
ज़रुरत की बरफ गिरती, जमाती ही रही,
कम, गर्म कपड़ों सा, हमेशा धन रहा,
चादर है बस इक योग्यता-विश्वास की,
न खूं जम पाया, कुछ, अपनों का अपनापन रहा,
भले ही ज़िंदगी मुश्किल है पर “संजीव” मैं,
झुका हूँ न झुकूँगा, है ये मेरा प्रन रहा........... संजीव मिश्रा
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