रंगों की एक गठरी ,किसने यहाँ खोली है ,
लगता है इस बरस भी, फ़िर आ गयी होली है ।
हर शख्स खिला सा है , हर ज़र्रा है महका सा ,
हर ग़म जला दिया है , हर फ़िक्र ज्यों धो ली है ।
होली नहीं ये तेरी , न रंग ये तेरे हैं ।
कानों में मेरे किसने , फ़िर बात ये बोली है ।
सबकी तरह से मैं भी, क्यों आज ख़ुश नहीं हूँ ,
क्यूँ ख्वामख्वाह मैंने, फ़िर आँख भिगो ली है ।
क्यूँ सोग किए जाता ,हूँ , तक़दीर का मैं अपनी ,
यहाँ बदकिस्मती भी क़िस्मत, की एक ठिठोली है ।
हमने तो है ये पाया , ये जिंदगी सिरिफ़ इक ,
उम्मीद - नाउमीदी, की आँख मिचोली है ।
इस बरस नयी पुडिया ,मजबूरियों के रंग की ,
लोहू में ख्वाहिशों के , हालात ने घोली है ।
मातम सा है इक अन्दर , कुछ हसरतें गयीं मर ,
अरमां सिसक रहे हैं , हर आरज़ू रो ली है ।
कोई संदेस घर से, आया नहीं होली पर ,
लगता है दिल में सबने, इक गैरियत बो ली है ।
यूं मुंह सा चिढाता है, हर इक त्यौहार आकर ,
ज्यूँ ग़म की घुड़चढी है , आशाओं की डोली है ।
'संजीव ' आज़माइश , है ज़ब्त की ये तेरे ,
थी गयी सता, दिवाली , अब आयी ये होली है ।
परिशिष्ट :
पिचकारी दूरियों की , और रंग है विरह का ,
गुलाल सब्र का है , कुछ ऎसी ये होली है ।
रंगीन किया जाना, बेरंग को , है मुमकिन ,
बदरंग जिंदगी में, क्यूँ आए ये होली है ।
मैं राह देखता हूँ , बस ऎसी इक होली की ,
जब झूमकर नशे में ,कह पाऊँ कि, "होली है " ।
माहौल में खुशी के , ये क्या मैं कह गया सब ,
फ़िर भी मुआफ करना , आख़िर को तो होली है ।
नहीं जानता "बहर" क्या ,कहते हैं "रुक्न" किसको ,
इक तड़प थी इस दिल में , लफ़्जों में पिरो ली है ।