भाग्य फलति सर्वत्रम , न च विद्या ,न च पौरुषम ,
हम भी कहाँ सहमत थे इससे , किंतु अंततः माने हम ।
क्रियमाण कर्मों का बल, प्रारब्ध समक्ष पड़ जाता कम,
कब कर्म ये संचित जीने दें, करते हैं लाख परिश्रम हम,
प्रबल वेग रत रथ कर्मों का , भाग्य पवन से जाता थम,
कर्म से सब मिल जाता तो, क्यों कौन किसी से होता कम,
सुख के लिए सौ-लाख जतन ,पर बिना प्रयत्न पा जाते ग़म,
सबके चेहरे खिले-खिले, बस आँख मेरी ही रहती नम ।
सत्य जगत में, एक दैव का ,शेष सभी ये करम, भरम,
आज मिला फल हमको उनका , जनम जो पिछले किए करम ।
पर क्या बोलें उस जीवन को, जो था, अपना प्रथम जनम,
देखें तो सब व्यर्थ है ये ,पर सोचें तो है गहन मरम ।
है क्रियमाण ये कर्म मेरा, मैं लिखता हूँ, है प्रिय क़लम,
पर 'संजीव' का है प्रारब्ध यही , के लोग उसे पढ़ते हैं कम । ......संजीव मिश्रा
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