ये गौरवर्ण मुख वलयाकार, दे चन्द्र भ्रान्ति,
सम कलानाथ है व्याप्त,
म्रदुल इक मधुर कान्ति,
है जहाँ पवित्रता छाई,
नहीं मालिन्य है कोई,
प्रिये दर्श मात्र तुमहारा,
देवे वर हमें शान्ति,
ये भाल विशाल पे आते केश
पयोधर जैसे,
उपनेत्र के दोनों भाग, कलुष रजनीकर जैसे,
ये अधर, द्वय, नव
विकसित पत्र कमलिनी जैसे,
इक दृष्टिपात तुमपर विनशे
सब सारी क्लान्ति,
लघु चिबुक,कपोल कोमल ये,
नेत्र ये कौड़ी सम,
ये मुखमंडल का तेज करे
हृद-स्पंदन कम,
ये उन्नत नासा तीक्ष्ण, हुए
हत-आहत हम,
“संजीव” के तुम ही भिषज, आओ
ये हरो श्रान्ति .........संजीव मिश्रा
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