तुम श्रुति,
स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त
तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन
सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.
तुम अमृत घट
दुर्लभ-अलभ्य ,मैं सर्व-सुलभ नर
साधारण,
तुम गायत्री का
गान मैं बस इक ग्राम्य-गीत सा उच्चारण,
मैं माया-मोहित
प्राणी सा तुम भव निधि के लगते तारण,
मैं कृष्ण पक्ष
का चन्द्र मात्र, तुम हो सूरज उत्तर आयण ,
मैं क्यों न गीत
तुम्हारे गाऊँ, प्रीत करूँ न किस
कारण,
तुम ही मेरा
अवलंबन हो तुम ही मेरी मन प्रीता हो...........
मैं राम नहीं बन
सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............
जाने कितने
जन्मों जन्मों बस बाट तुम्हारी जोही थी,
जानें कितने ही
दिवस-निशा ये श्वास यूंही बस ढोही थी,
जब तुम्हें था
पाया तभी मुझे ये जगती थोड़ी सोही थी,
जो तुमसे कभी न
कह पाया वो बात यही बस तो ही थी,
कितने दिन तेरे बिना कटे, नियति कितनी निर्मोही थी,
“संजीव” को इस
दुर्गम पथ में तुम ही तो एक सुभीता हो......
मैं राम नहीं बन
सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............
तुम श्रुति,
स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त
तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन
सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो........संजीव मिश्रा
जिससे प्रेम हो उसे ऊंचा दर्जा देना ही चाहिए ...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति ... दीपावली की हार्दिक बधाई ...
भावो का सुन्दर समायोजन......
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