मेरी वो सात और
छह साल की दो बेटियाँ प्यारी,
उन्हीं तक है
मेरी दुनिया, उन्हीं से है मेरी ज़न्नत,
सिला वो उन
सबाबों का, किये पिछले जनम मैंने,
हुए सौ ज़ुल्म मुझ
पर, भारी है बस इक यही रहमत,
उन्हीं के भाग से
है पेट-रोटी, तन मेरे कपडे,
वो जीवन का उजाला
हैं, वही घर की मेरी बरकत,
मैं तो हूँ बस,
रियाया इक, वो दो शहज़ादियां मेरी,
उन्हीं के ही तो
दम पर है टिकी इस घर की सल्त-नत,
वो न आँखों का
तारा हैं, न लाठी का सहारा हैं,
रगों में दौड़ता
लोहू, वो मेरे ज़िस्म की हरक़त,
उन्हीं के ही
सहारे अब थमी ये ज़िंदगी मेरी,
उन्हीं तक हर दुआ
मेरी, उन्हीं तक हर मेरी मन्नत,
दुआ दो बस कलेजे
से मेरे होएं जुदा न वो,
नहीं “संजीव” को
कुछ चहिये तारीफ़ या शोहरत......
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