ज़ुल्फ़ों से खेलती
वो, कमसिन हसीन लड़की,
माहौल को नूरानी
, करती हसीन लड़की,
आयी थी वो नहाकर
और धूप में खड़ी थी,
मैं जा रहा था
यूं ही, उस पर नज़र पड़ी थी,
कुछ बाल घूमकर
जो, गालों पे आ रहे थे,
उस ख़ूब-सूरती को ,
दुगना बना रहे थे,
था पैरहन वो
सादा, पर उसपे फ़ब रहा था,
छोटा सा नाक पर
वो, इक फूल जंच रहा था,
मैं ठिठक गया
भौंचक, आगे मैं बढ़ न पाया,
पर लोग देखते
हैं, दिल में ख़याल आया,
आगे मैं थोड़ा जाकर, वापस गली में आया,
उसे फ़िर से देखने
का, अरमां मिटा न पाया,
वो थी उसी जगह
पर, मुझे देख मुस्कुराई,
था हिल गया
कलेजा, कुछ पल न सांस आयी,
वो आखें दो
पनीली, पतली लकीर से लब,
वो पंखुरी सी
पलकें, देखूंगा अब भला कब ,
कस्तूरी की महक
थी, सौ चाँद की चमक थी,
जो देखी कहीं न
मैंने ,वो कमर में लचक थी,
चन्दन की थी वो
मूरत, पुखराज की लड़ी थी,
उस जैसी ख़ूबसूरत,
देखी न,बस पढ़ी थी,
समझाया दिल को
मैंने, ये दुनिया ख्व़ाब है बस,
ये ख्व़ाब टूटना
है, सब झूठा जाल है बस,
ये कमसिनी,
नज़ाकत, ये ख़ूबसूरती सब,
है वक़्त की अमानत,
वो जाएगा मिटा सब,
ये सोचकर गली को
मैं पार कर गया था,
ये बैराग मेरे भीतर,
“संजीव” भर गया था ............संजीव
मिश्रा
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