दिन नया
हाज़िर है फ़िर से इम्तेहां नये लेकर,
कितने आज़ाब से, न जाने, फ़िर गुज़रना
है,
अपने मेयार
ज़िंदगी के जिबह करने होंगे,
दूसरों के
ही उसूलों पे फिर से चलना है,
फ़िर मुझे शाम
तलक़ बस येही इन्तेज़ार होगा,
कैसे दिन
ढलता है और दफ़्तर से कब निकलना है,
जाने क्या
बात है, सबकी तरह न जी पाया,
रोज़
यहाँ आग में बस एक नयी जलना है,
जाने किस तरहा
से ये दुनिया गयी बनायी है,
सिर्फ़ “संजीव” की ही क़िस्मत
में हाथ मलना है..........
बेहतरीन अभिवयक्ति.....
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