शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

कौम से हूँ बिरहमन...........

क्या रस्ता, क्या मंज़िल , क्या दुनिया, क्या "महफ़िल",
क्या   सहरा,    क्या     गुलशन ,  क्या उनका नशेमन,

सभी    से     ही    हैं ,अब    तो     वाक़िफ      बखूबी,
कहीं        भी    नहीं    अब     तो   टिकता है ये मन,

उन्हीं      के     ही    क़दमों    में    है ज़ीस्त अब तो,
के     जिनसे     हमेशा   ही    रहती   है      अनबन,

न      था     मैं     भी     हक़   में,    के  पूजूं बुतों को,
करूं     क्या      मगर    कौम     से    हूँ    बिरहमन,

मेरी      ग़ज़लों    के रंग,   मेरी   नज़्मों  की खुशबू,
सब    उसी   ने  अता   की ,   सब उस  को है अरपन ,

 जिस   तरहा , पेश   आये   हैं      "संजीव" से वो ,
पेश     आये    ,रकीबों   से     न   कोई दुश-मन ......




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