इतना ग़म न कोई पायेगा आगे अब ,
सिलसिला ये खतम , मैं ही आखीर हूँ ।
बदनसीबी की इक ज़िंदा तस्वीर हूँ ,
गौर से देखिये ग़म की तहरीर हूँ ।
बोझ हूँ इक मैं ख़ुद अपनी ही रूह पर ,
ख़ुद के सीने में चुभता हुआ तीर हूँ ।
मुस्कुरा ना सका दो घडी भी कभी ,
इन लबों पे उदासी की ज़ंजीर हूँ ।
एक चिलमन हूँ मैं हर खुशी के लिए ,
ख़ुद की आँखों में ठहरा हुआ नीर हूँ ।
हूँ ख़ुशी मैं रकीबों के दिल में दबी ,
खैरख्वाहों के दिल में छिपी पीर हूँ ।
तेरी बस्ती यहाँ से है दिखती नहीं ,
रंज की दुनियाँ का एक रह्गीर हूँ ।
शाहज़ादा हूँ मैं ही बुरे वक्त का ,
क़िस्मते-बद की मैं ही तो जागीर हूँ ।
कोशिशों में मेरी, ना थी कोई कमी ,
जो नसीबा से हारी वो तदवीर हूँ ।
ख़्वाब 'संजीव' के अब न देखे कोई ,
जो बिगड़ के न संवरे वो तक़दीर हूँ ।
oh really a very touching feeling.more than a poem......bahut lambe sama ke baad koi rachna mujhe bahut achhi lagi. really a masterpiece.
जवाब देंहटाएंहूं खुशी मैं रकीबों के दिल में दबी...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे बन्धू....छा गये।
आखिरी शेर सोने पर सुहागा।
बहुत ही उम्दा लिखा है......सारे के सारे शेर एक से बड़कर एक हैं......
जवाब देंहटाएंख़ुद की आंखों में तेरा हुआ नीर तो कमाल का है.......\\
अक्षय-मन
तेरी बस्ती यहाँ से है दिखती नहीं ,
जवाब देंहटाएंरंज की दुनियाँ का एक रह्गीर हूँ
सुन्दर रचना बधाई
बहोत बढ़िया लिखा है आपने संजीव जी,...बहोत बधाई ..
जवाब देंहटाएंअर्श
बहुत ही उम्दा .....
जवाब देंहटाएंख़ुद की आँखों में ठहरा हुआ नीर हूँ ...
जवाब देंहटाएंवाह ! बहोत ही असरदार ब्यान है, पूरी ग़ज़ल पढ़ लेने के बाद मन
को इक अजीब सा सुकून हासिल होता है .
शुक्रिया ....
---मुफलिस---