मंगलवार, 4 नवंबर 2008

वो चाँद ढल रहा है

वो चाँद ढल रहा है ,
इधर मेरी ज़िन्दगी ,
ये रात आखिरी है ,
तेरे मेरे साथ की ।

मैं तेरे क़दमों की ,
ख़ाक भी न पा सका ,
चूमेगा कोई मेहंदीयां ,
तेरे हाथ की ।

खार भी राहों के तेरी ,
मैं न चुन सका ,
बिंदिया सजायेगा कोई ,

तेरे माथ की ।

तेरे बिना अब ज़िन्दगी ,
न बीत पाएगी ,
तुझसे जो पहले कट गयी,
वो और बात थी ।

दो चार दिन की बात हो तो ,
कोई काट ले ,
मुझको तो मिलनी है सज़ा ये ,
ता - हयात की ।

ख़ाक = धूल, खार = कांटे , ता - हयात = पूर्ण जीवन

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