शनिवार, 13 जून 2020

बार-बार क्यूँ............

बार-बार क्यूँ............

है किसका इंतज़ार जाने, किसकी जुस्तजू,
दरवाज़े पे उठती नज़र, है बार-बार क्यूँ,

हर बार हर महफ़िल से हम ही बेदख़ल हुए,
तनहाई का ये बोझ सर पे, बार-बार क्यूँ,

लगती अधूरी सी है क्यूँ, अपनी ही शख़्सियत,
मैं क्यूँ उसी पर जाऊं हूँ, यूं बार-बार क्यूँ,

कुछ बात है दिल में, कोई जो कह न मैं सका,
लिखता हूँ और फ़िर फाड़ता, ख़त बार-बार क्यूँ,

अपनी तरफ़ से बोलता, जब है नहीं कभी,
देता जवाब फ़िर मुझे, वो बार-बार क्यूँ,

वो हुस्न है, मग़रूर है, खुद्दार मैं भी हूँ,
फ़िर भी वही दरख़्वास्त इक, है बार-बार क्यूँ,

उस पर कोई ग़ज़ल - नज़म, सब बेअसर रहे,
"संजीव"तुक मिलाये फ़िर भी, बार-बार क्यूँ........संजीव मिश्रा

ख़्वाब.......

ख़्वाब.........

नाशाद ज़िन्दग़ी के बस्ते में,

मायूसियों का

एक सूखा ब्रश पड़ा था,

आँखों की नम कोरों से

लगाया,  गीला किया,

उदासियों की शीशी से,

यादों के कुछ रंग निकाले,

कोशिशों की

कुछ आड़ी-तिरछी

लकीरें बनायीं,

नाकामयाबियों का शेड दिया,

तोहमतों के बक्से से,

बदनामी का डब्बा उठाया,

रुसवाईयों के कुछ और रंग निकाले,

स्प्रे किया, बॉर्डर बनाया,

फ़िर दूर खड़े होकर देखा,

तो अहसास हुआ,

मैं आईने के सामने खड़ा हूँ,

झुंझलाहट का एक पत्थर

उठाकर दे मारा,

एक बेक़ुसूर आईना बिखर गया,

ख़्वाब भी टूट गया।


आज शायद जल्दी सो गया था,


अब तो शायद नींद भी न आये,

डरता हूँ, कहीं वैसा ही ख्वाब,

दोबारा ना आये.........


संजीव मिश्रा

कभी ऐसी दीवाली आये......

कभी ऐसी दीवाली आये...

कभी ऐसी दीवाली आये...
बाहर मिटें अँधेरे,भीतर भी उजियारा छाये,
कभी ऐसी दीवाली आये........

कहीं अभाव या निर्धनता का लेश रहे ना बाक़ी,
सबकी प्यासी कामनाओं को, हाज़िर हो इक साक़ी,
न कहीं किसी मुफ़लिस की बेटी, बिन ब्याही रह जाये ,
कभी ऐसी दीवाली आये......

मेरे देश से  दुर्योधन और दु:शासन मिट जायें,
कभी-कहीं-कोई बालाएं न जबरन नोची जायें,
बेटी हो पैदा तो न फ़िर बाप का दिल घबराये,
कभी ऎसी दीवाली आये....

मैं भी रहूँ प्रसन्न , पड़ोसी भी आनन्द मनाये,
हर कोई अपनी मेहनत का समुचित प्रतिफल पाये,
घर तेरे होकर माँ लक्ष्मी, “संजीव” के घर भी आये,
कभी ऎसी दीवाली आये........................संजीव मिश्रा

अखरते रहे.......

style="text-align: left;"> अखरते रहे.......
 
साल-दर-साल यूं ही गुज़रते रहे,
ज़िन्दा रहने का हम सोग करते रहे,

कैसा ना जाने कर्मों का इक क़र्ज़ था,
सूद नाकामियों का ही भरते रहे ,

अरमां हरजाई थे, ख़्वाब थे बेवफा,
दोसतों की तरह से मुकरते रहे ,

जिंदगी ना संवर पाई अपनी कभी,
हसरतों की तरह ख़ुद बिखरते रहे,

ऐब था माथे की कुछ लकीरों में ही,
कामयाबी को हम ही अखरते रहे,

जी गये वो जिन्होंने न परवाह की,
हम ग़लत और सही बीच मरते रहे,

रास आया न जीवन ये "संजीव" को,
हादसे हर क़दम पर उभरते रहे। ..........संजीव मिश्रा

शनिवार, 16 नवंबर 2019

...........मेरी बाँहों की माला

मेरी बाँहों की माला


तुम सुन्दर उर्वशी भांति मैं इंद्र देव सा मतवाला,
प्रणय भाव  में नर्तन होता मद मोहित करनेवाला,
तुम बिन मैं और मुझ बिन तुम हैं आधे और अधूरे से,
तुम सुन्दरता की अग्नि मैं प्रेम-प्यार की हूँ ज्वाला,

तुम यदि मादकता हाला की, मैं सोने का हूँ प्याला,
पड़ा नहीं अब तक शायद तुम-हारा हम जैसों से पाला,
तुम क्या हो हम जिसको चाहें उसकी क़ीमत बढ़ जाए,
इक काली सी लड़की को मजनूं ने लैला कर डाला,

हमको भी तुम यूं ही कोई ऐसा वैसा न समझो,
जिसको हमने चुना  कभी उसको अपना ही कर डाला,
मेरे आलिंगन में है कुछ ऐसा अदभुत अमरत्व छिपा,
लालायित कितनीं  पाने को मेरी बांहों की माला,

हूँ, ऊपर से फ़रहाद-ओ-राँझा, मन भीतर बैरागी वाला,
अब  रंग सभी  स्वीकृत जीवन के, सुनहैरा या हो काला,
तुम चाहे कुछ भी समझो पर, ये “संजीव” समझता है,
जीवन दुःख था, जीवन दुःख है, जीवन दुःख देने वाला.......  संजीव मिश्रा