मेरी बाँहों की माला
तुम सुन्दर उर्वशी भांति मैं इंद्र देव सा मतवाला,
प्रणय भाव में नर्तन होता मद मोहित करनेवाला,
तुम बिन मैं और मुझ बिन तुम हैं आधे और अधूरे से,
तुम सुन्दरता की अग्नि मैं प्रेम-प्यार की हूँ ज्वाला,
तुम यदि मादकता हाला की, मैं सोने का हूँ प्याला,
पड़ा नहीं अब तक शायद तुम-हारा हम जैसों से पाला,
तुम क्या हो हम जिसको चाहें उसकी क़ीमत बढ़ जाए,
इक काली सी लड़की को मजनूं ने लैला कर डाला,
हमको भी तुम यूं ही कोई ऐसा वैसा न समझो,
जिसको हमने चुना कभी उसको अपना ही कर डाला,
मेरे आलिंगन में है कुछ ऐसा अदभुत अमरत्व छिपा,
लालायित कितनीं पाने को मेरी बांहों की माला,
हूँ, ऊपर से फ़रहाद-ओ-राँझा, मन भीतर बैरागी वाला,
अब रंग सभी स्वीकृत जीवन के, सुनहैरा या हो काला,
तुम चाहे कुछ भी समझो पर, ये “संजीव” समझता है,
जीवन दुःख था, जीवन दुःख है, जीवन दुःख देने वाला....... संजीव मिश्रा
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