ख़्वाब.........
नाशाद ज़िन्दग़ी के बस्ते में,
मायूसियों का
एक सूखा ब्रश पड़ा था,
आँखों की नम कोरों से
लगाया, गीला किया,
उदासियों की शीशी से,
यादों के कुछ रंग निकाले,
कोशिशों की
कुछ आड़ी-तिरछी
लकीरें बनायीं,
नाकामयाबियों का शेड दिया,
तोहमतों के बक्से से,
बदनामी का डब्बा उठाया,
रुसवाईयों के कुछ और रंग निकाले,
स्प्रे किया, बॉर्डर बनाया,
फ़िर दूर खड़े होकर देखा,
तो अहसास हुआ,
मैं आईने के सामने खड़ा हूँ,
झुंझलाहट का एक पत्थर
उठाकर दे मारा,
एक बेक़ुसूर आईना बिखर गया,
ख़्वाब भी टूट गया।
आज शायद जल्दी सो गया था,
अब तो शायद नींद भी न आये,
डरता हूँ, कहीं वैसा ही ख्वाब,
दोबारा ना आये.........
संजीव मिश्रा
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