style="text-align: left;"> अखरते रहे.......
साल-दर-साल यूं ही गुज़रते रहे,
ज़िन्दा रहने का हम सोग करते रहे,
कैसा ना जाने कर्मों का इक क़र्ज़ था,
सूद नाकामियों का ही भरते रहे ,
अरमां हरजाई थे, ख़्वाब थे बेवफा,
दोसतों की तरह से मुकरते रहे ,
जिंदगी ना संवर पाई अपनी कभी,
हसरतों की तरह ख़ुद बिखरते रहे,
ऐब था माथे की कुछ लकीरों में ही,
कामयाबी को हम ही अखरते रहे,
जी गये वो जिन्होंने न परवाह की,
हम ग़लत और सही बीच मरते रहे,
रास आया न जीवन ये "संजीव" को,
हादसे हर क़दम पर उभरते रहे। ..........संजीव मिश्रा
ज़िन्दा रहने का हम सोग करते रहे,
कैसा ना जाने कर्मों का इक क़र्ज़ था,
सूद नाकामियों का ही भरते रहे ,
अरमां हरजाई थे, ख़्वाब थे बेवफा,
दोसतों की तरह से मुकरते रहे ,
जिंदगी ना संवर पाई अपनी कभी,
हसरतों की तरह ख़ुद बिखरते रहे,
ऐब था माथे की कुछ लकीरों में ही,
कामयाबी को हम ही अखरते रहे,
जी गये वो जिन्होंने न परवाह की,
हम ग़लत और सही बीच मरते रहे,
रास आया न जीवन ये "संजीव" को,
हादसे हर क़दम पर उभरते रहे। ..........संजीव मिश्रा
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