बुधवार, 18 जून 2014

अनूठे हुए



इन दिनों ख़ुद से ही, कुछ हैं रूठे हुए,
ख़ुद से बेज़ार हैं, ख़ुद से टूटे हुए,

आज कोई नहीं, साथ अपने यहाँ,
हाथ उम्मीद तक के, हैं छूटे हुए,

ज़िन्दगी ने किये थे जो, हमसे कभी,
सारी क़समें , वो सब वादे झूठे हुए,

ख्व़ाब सच न हुए, अरमां प्यासे रहे,
बीते दिन, चाँद पानी में, छूते हुए,

फैसले सारे, तक़दीर करती रही,
काम कब कुछ यहाँ, अपने बूते हुए,

क्यों तुम्हारी ही बस, ज़ीस्त गुज़री है यूं,
तुम भी “संजीव” क्यों यूं अनूठे हुए..................... संजीव मिश्रा

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

बहुत हैं................

अब भला फ़ुर्सत कहाँ , शेरों को सुखन को,
अब नून, तेल -आटे की फिक्रें ही बहुत हैं,

अब ज़ुल्फ़ की गिरहें हसीं, ख़्वाबों में भी नहीं ,
इस पैर में अब फ़र्ज़ की, ज़ंजीरें बहुत हैं,

वो याद भी आ जाएँ तो, है शुक्रिया उनका,
वो भूल हमें जाएँ, तो अहसान बहुत हैं,

मिलना नहीं होता है अब,उनसे,न क़लम से,
ख़ुद से भी जो मिल पायें, वो दो लम्हे बहुत हैं,

पहले "संजीव" कहते थे, हर दिन ग़ज़ल, मगर
दो-चार महीनों में अब, ये शेर बहुत हैं .............संजीव मिश्रा

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

अब बात कहाँ हो पाती है.......



अब बात कहाँ हो पाती है.......

हम भी हैं व्यस्त गृहस्थी में,
उन पर भी घर के बंधन हैं,
हैं साथ सदा, पर निकट नहीं,
हम पायल-से, वो कंगन हैं,

अब खन-खन के संग पायल की,
झनकार कहाँ हो पाती है.....

हैं भाव ह्रदय के दबे हुए,
दायित्वों के अम्बारों से,
भीतर का चिर-प्रेमी घायल,
चिंताओं की तलवारों से,

उनको पाने की चाह भला,
साकार कहाँ हो पाती है.......

वो कहते हैं, क्या भूल गये?
हो सपने सारे, धूल गये,
सब पुष्प, प्रिय वचनों वाले,
इस मौन में हो सब शूल गये,

इस उपालंभ में छिपी पीर,
स्वीकार कहाँ हो पाती है........

अब समय नहीं मिलता बिलकुल,
कविताओं को, सम्वादों को,
अब कहाँ निभा पाते हैं हम,
अपनी कसमों को, वादों को,

इक घड़ी भी जीवन की अब तो,
निर्भार कहाँ हो पाती है........

इस मौन में भी है प्रेम छिपा,
हम निकट हैं इस दूरी में भी,
तुम न समझो तो विषय प्रथक,
तुम इस मन-प्राण-ह्रदय में ही,

“संजीव” विरक्ति का, दूरी
आधार कहाँ हो पाती है.............संजीव मिश्रा

शनिवार, 15 मार्च 2014

तो क्या खेली होली.....



उल्फ़त के रंग से, मुहब्बत की होली,
जो उनसे न खेली, तो क्या खेली होली,

जो जानम को कस के, न बांहों में जकड़ा,
गले न मिले ग़र, तो क्या खेली होली,

न बालों को कस के, पकड़ के जो उनके,
न बोसे लिए ग़र, तो क्या खेली होली,

जो, उन्होंने हया से, मुझे याद करते,
न कुर्ती निचोड़ी, तो क्या खेली होली,

जो “संजीव” ने उनको अपने ही रंग में,
रंगा न अगर, फ़िर, तो क्या खेली होली......संजीव मिश्रा

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

दुःख के दैत्य जीते हैं.......

दुःख के दैत्य जीते हैं..............


अधूरी कामना के, विष पयाले, हम भी पीते हैं,
कभी आकर तो देखो, हम यहाँ पर कैसे जीते हैं,

वहाँ कैलाश से, तुमको तो सब कुछ, दीखता होगा,
के कैसे जीने की हसरत लिए, सब दिन ये बीते हैं,

समस्याएं हिमाला बन, खड़ी है सामने, हर दिन,
सिया कुर्ता-फटा कल, आज जूते भी, ये सीते हैं,

हो तुम स्वामी त्रिलोकों के, हमारी फ़िक्र कुछ कीजे,
सदा "संजीव" ही हारा, ये दुःख के दैत्य जीते हैं..............संजीव मिश्रा

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

ज़माना ना आया.....



अभी तुमको दिल का, लगाना न आया,
सलीक़े से दिल को, चुराना न आया,

मिलाकर अभी आँखें,  तुम बात करते,
के नज़रें हया से,  झुकाना न आया,

हो तुम तैश में, हमको तेवर दिखाते,
के अन्दाज़ ख़ालिस, ज़नाना न आया,

के सीखोगे, धीरे ही धीरे ये बातें,
अभी हाल दिल का, जताना ना आया,

मैं बांहों में भर, चूम लूं लब तुम्हारे,
वो माहौल तुमको, बनाना न आया,

ये नाज़ुक बदन, और ये ज़ुल्फ़ें घनेरी,
कहूं कैसे अपनी, बहाना न आया,

के नाचोगे बिन घुँघरू, छम-छम, छमक-छम,
ज़ुबां पर अभी बस, तराना ना आया,

के संजीवनाक़ामे उल्फ़त रहें वो,
क़सम से अभी तो, ज़माना ना आया............संजीव मिश्रा