अब बात कहाँ हो पाती है.......
हम भी हैं व्यस्त गृहस्थी में,
उन पर भी घर के बंधन हैं,
हैं साथ सदा, पर निकट नहीं,
हम पायल-से, वो कंगन हैं,
अब खन-खन के संग पायल की,
झनकार कहाँ हो पाती है.....
हैं भाव ह्रदय के दबे हुए,
दायित्वों के अम्बारों से,
भीतर का चिर-प्रेमी घायल,
चिंताओं की तलवारों से,
उनको पाने की चाह भला,
साकार कहाँ हो पाती है.......
वो कहते हैं, क्या भूल गये?
हो सपने सारे, धूल गये,
सब पुष्प, प्रिय वचनों वाले,
इस मौन में हो सब शूल गये,
इस उपालंभ में छिपी पीर,
स्वीकार कहाँ हो पाती है........
अब समय नहीं मिलता बिलकुल,
कविताओं को, सम्वादों को,
अब कहाँ निभा पाते हैं हम,
अपनी कसमों को, वादों को,
इक घड़ी भी जीवन की अब तो,
निर्भार कहाँ हो पाती है........
इस मौन में भी है प्रेम छिपा,
हम निकट हैं इस दूरी में भी,
तुम न समझो तो विषय प्रथक,
तुम इस मन-प्राण-ह्रदय में ही,
“संजीव” विरक्ति का, दूरी
आधार कहाँ हो पाती है.............संजीव मिश्रा
बहुत ही मधुर गीत ... सत्य कि उर लेजाता .. फिर भी स्वप्न सामान ...
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