इन दिनों ख़ुद से ही, कुछ हैं रूठे हुए,
ख़ुद से बेज़ार हैं, ख़ुद से टूटे हुए,
आज कोई नहीं, साथ अपने यहाँ,
हाथ उम्मीद तक के, हैं छूटे हुए,
ज़िन्दगी ने किये थे जो, हमसे कभी,
सारी क़समें , वो सब वादे झूठे हुए,
ख्व़ाब सच न हुए, अरमां प्यासे रहे,
बीते दिन, चाँद पानी में, छूते हुए,
फैसले सारे, तक़दीर करती रही,
काम कब कुछ यहाँ, अपने बूते हुए,
क्यों तुम्हारी ही बस, ज़ीस्त गुज़री है यूं,
तुम भी “संजीव” क्यों यूं अनूठे हुए..................... संजीव मिश्रा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें