सोमवार, 20 जनवरी 2014

ज़िंदगी मुश्किल है..........

निर्धन की सर्दीयों सा कुछ जीवन रहा,
तन, सुविधा की पाये रजाई, बिन रहा,

संपत्ति की न, तापने को आंच थी,
सुख की सुनहरी धूप में, न मन रहा,

ठिठुरन अभावों की, सताती ही रही,
समस्याओं के कोहरे में, छाया दिन रहा,

दुर्भाग्य की खिड़की, खुली, बंद न हुई,
हवा असफलता की से, काँपता हर छन रहा,

क्षमता उठाने की थी, बस इक लेखनी,
दायित्व कन्धों पर सदा, इक मन रहा,

ज़रुरत की बरफ गिरती, जमाती ही रही,
कम, गर्म कपड़ों सा, हमेशा धन रहा,

चादर है बस इक योग्यता-विश्वास की,
न खूं जम पाया, कुछ, अपनों का अपनापन रहा,

भले ही ज़िंदगी मुश्किल है पर “संजीव” मैं,
झुका हूँ न झुकूँगा, है ये मेरा प्रन रहा........... संजीव मिश्रा

कनक छरी सी लागो............


धवल दन्त पंक्ति शोभित है, रक्तिम होठों बीच,
ये निश्छल मुस्कान मिटाती, है मन की सब कीच,

चुनर बैंगनी, नीला कुरता, केश बायें कंधे पर,
फ़िर-फ़िर ये तस्वीर मुझे, ले आये तुम तक खींच,

लम्बी-पतली-सुतवां काया , कनक छरी सी लागो,
इक कल्पवृक्ष तुम, जिसे गया हो, अमृत द्वारा सींच,

तुम्हें देख जग सुन्दर लगता, कहीं न कोई द्वैत,
भेद-भाव मिट चुके सभी अब, कोई ऊंच न नीच,

कुछ ऐसा मायावी है, आकर्षण पाया तुमने,
“संजीव” तुम्हें पहचाने लाखों में भी आँखें मींच ......संजीव मिश्रा

बात इश्क़ की हो..........


उन्होंने कहा है नफ़रत, छोड़ो, तो चलो छोड़ें,
दिल नाज़नीनों का हम, अब कैसे भला तोड़ें,

उन हुस्न के मालिक की, ये इल्तिज़ा, हुकुम है,
ये आइना रिश्तों का, अब टूटा, चलो जोड़ें,

हो गुफ़्तगू जो उनसे , बस वो ही तो ग़ज़ल है,
अब ग़ज़ल की कोशिश हो, अब रुख कलम का मोड़ें,

“संजीव” हो जहां पर, वहाँ बात इश्क़ की हो,
दुनियावी मसाइल पर, हम सर क्यों भला फोड़ें.....संजीव मिश्रा

जंग बुरे की अच्छे से...........

शठे-शाठ्यम समाचरेत की नीति तो यह कहती है,
मैं भी पत्थर ले आऊँ ग़र, मुझ पर  ईंट उछलती है,

महावीर-बुध और गांधी का, दर्शन कहाँ प्रासंगिक है,
शठ-धूर्त-मूढ़ के शब्दों में, इक अतिशय घृणा झलकती है,

हूँ सबल-समर्थ मैं हर भांति, देने को उसको हर उत्तर,
पर विनय है लक्षण विद्या का, बस ये ही बात उलझती है,

मैं बात करूँ मानवता की, वो वर्गभेद पर अटका है,
मेरी देशभक्ति पर लिखी कोई पंक्ति भी उसे अखरती है,

वो जो है, जैसा भी है, मुझको कोई हर्ष-विषाद नहीं,
पर मैं जो हूँ, वो क्यों हूँ, उसको बात ये पीड़ित करती है,

“संजीव” को मैं दिन रात यही, बस बात एक समझाता हूँ,
यह जंग बुरे की अच्छे से, हर युग में चलती रहती है........ संजीव मिश्रा

प्रेम पाना है प्रथम..............

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता,
आज की पीढ़ी को ये, शायद अभी तक न पता,

उनके लिए अस्तित्व नारी का सिरफ इक देह है,
पर देह भी मंदिर सृजन का, कोई उनको दे बता,

प्रेम, करुणा और ममता, और समर्पण हैं छिपे,
देह को बस रेशमी, इक आवरण मैं मानता,

देह से आगे कभी, जाकर भी तुम देखो उसे,
अंतःकरण छू पाओ तुम, हासिल करो ये पात्रता,

ऐसा नहीं कि मुझको ये, देहें लुभाएँ न, मगर,
पर प्रेम पाना है प्रथम, “संजीव” इतना जानता.........संजीव मिश्रा