शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

फ़ितरत है बड़ी सादी सी....

मैं जो  तनहा हूँ   इधर,   वो भी अकेले होंगे,
ये      अलग  बात   हसीं यादों  के मेले होंगे,

आज   की  रात मेरी बांहों में गुज़र जाने दो,
कल से फिर सारे वही दुनियावी झमेले होंगे,

चाहने   वाले   तुम्हें   यूं   तो   बहुत   सारे है,
तुमपे मिट जाए जो, हम शख्स वो पहले होंगे,

माना "संजीव" की फ़ितरत है बड़ी सादी सी,
ख्व़ाब   पर   उसके   बड़े   रंगीं,  रुपहले होंगे.....

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

क़सम खाए हैं.....

जिये जाते हैं  बस, उनकी ख़ुशी की ख़ातिर,
के जो दुनिया में, बस मेरे ही लिए आये  हैं,

बहुत क़रीब हैं दिल के वो, मगर उनसे भी,
वो क्या जानें के हम, क्या-क्या रहे छिपाए हैं,

क्या-क्या चाहा था कि करूँगा मैं, वास्ते उनके,
करें तो  क्या के, इक मुक़द्दर ख़राब लाये है,

मेरी तदवीरों  के वो सारे किले तोड़ गयी,
लड़ के तकदीर से जो हमने कभी बनाए हैं,

कोई चाहे न सराहे “संजीव” हम फिर भी,
यूं ही ताउम्र लिखे जाने की क़सम खाए हैं.....

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

या हमारे लिए......



खेल है ज़िन्दगी इक तुम्हारे लिए,
जेल है उम्र भर की हमारे लिए,

अहमियत दोस्तों की तुम्हें कुछ नहीं,
मेल है आत्मा का हमारे लिए,

तुमको क्या है ख़बर , कौन मिट बैठा है,
कौन क्या है यहाँ पर हमारे लिए,

न ही समझे हो तुम, न समझ पाओगे,
किसको भेजा ख़ुदा ने हमारे लिए,

आज आओ चलो, हम करें फ़ैसला,
तुम हो “संजीव” के या हमारे लिए......

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

कब निकलना है........



दिन  नया   हाज़िर  है फ़िर से इम्तेहां नये लेकर,
कितने  आज़ाब से, न जाने,   फ़िर गुज़रना  है,

अपने मेयार ज़िंदगी के जिबह करने होंगे,
दूसरों के ही  उसूलों पे फिर से चलना है,

फ़िर मुझे शाम तलक़ बस येही इन्तेज़ार होगा,
कैसे दिन ढलता है और दफ़्तर से कब  निकलना है,

जाने क्या बात है, सबकी तरह न जी पाया,
रोज़ यहाँ  आग में बस एक नयी जलना है,

जाने किस तरहा से ये दुनिया गयी बनायी है,
सिर्फ़ संजीवकी ही क़िस्मत में हाथ मलना है..........

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

यही कुछ क्या कम था.......

तनहा -तनहा        शामें,   रातें   वीरानी,
दिन उजड़े -उजड़े से हर पल  मातम सा,

क्यों इतनी बड़ी सज़ा, ख़ता छोटी सी थी,
पाना   जो   चाहा   था, उसका दामन था,

छोड़ दो मुझको  हाल मेरे, मत खेलो अब,
कल फ़िर  तेरी बातों में कुछ अपनापन था,

विरह की लम्बी उम्र, बद-दुआ सा जीवन,
जी पाया "संजीव" यही कुछ क्या कम था..
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