सोमवार, 16 सितंबर 2013

बड़ा भारी गुज़रता है......

सुबह के तीन बजते ही, उठो और भागो औफ़िस को,
बस हफ़्ते का ये पहला दिन बड़ा भारी गुज़रता है,

वो नौ से पांच तक का वक़्त तो कट जाता है लेकिन,
सफ़र ये  चार घंटे का  बड़ा भारी गुज़रता है,

बड़ा अच्छा सा लगता है शनीचर को घर आ जाना,
मगर सोमवार का जाना बड़ा भारी गुज़रता है,

ये माना ज़िन्दगी में मेहनतें करनी ही पड़ती  है,
मुक़द्दर साथ न दे जब, बड़ा भारी गुज़रता है,

अलग वो लोग हैं जो हैं कमा पाते सुकूं से कुछ,
मगर "संजीव" को ये सब बड़ा भारी गुज़रता है........

शनिवार, 7 सितंबर 2013

तेरे पास मैं फिर आऊंगा.......



रेलगाड़ी में हूं, अकेला हूँ डिब्बे में, कुछ उकता रहा हूँ,
हफ़्ते का आख़िरी दिन है, आज घर जा रहा हूँ,

शाम ढल चुकी है, रात के आठ बज जाने को हैं,
खिडकी से आती हवा दिलक़श मालूम होती है,

रेल  गुनगुनाती सी कुछ ऐसे चलती  जाती है,
जैसे कमसिन कोई सखियों  से कुछ बतियाती है,

कभी फुसफुसाती है दबे सुरों में कुछ आहिस्ता से,
और ठहाकों सी कभी सीटियाँ बजाती है,

अँधेरा हो चला है,  तारे कुछ यूं  दिखाई देते हैं,
जैसे जंगल  में स्याह पेड़ों की उंची शाखों पर,

जुगनुओं का कोई जलसा सा , कोई मजलिस हो,
समां खूबसूरत सा है पर दिल नहीं लुभाता है,

रेल रुक रुक के चल रही है कुछ पडावों पर,
मुझको मुसलसल सिरफ तेरा ख़याल आता है,

जिस  क़दर टूट मुझे तूने मुहब्बत की है,
मेरा था फ़र्ज़ दिलो जां से तेरा हो रहता,

जैसे तू मुझपे है सौ जान से निछावर यूं,
मेरे भी दिल में सिवा तेरे, न और कोई रहता,

नहीं रहना  था मुझे मसरूफ उसकी बांहों में,
नहीं बितानी थीं शामें मुझे उसकी उन पनाहों में,

न ढूंढना था सुकूं मुझको उसकी ज़ुल्फ़ तले,
न बितानी थी ज़िंदगी ये उसकी चाहों में,

मैंने रातें बिताईं हैं आगोश में जिसके,
वो मेरे सुख की है साथी, न दुःख की हो सकती,

आज एहसास है के प्यारी वो भले कितनी हो,
नहीं तुझसी वो,शरीक़े-हयात हो सकती,

आज शर्मिन्दा हूँ दिल से, मैं अपनी हस्ती पर,
जो तेरा हक़  था, वही तुझको  दे नहीं पाया,

ऐशो-आराम  न दे पाया तुझे दुनिया के,
और क्या देता तुझे मैं वफ़ा न दे पाया,

मुझको करना मुआफ़,  इन मेरे अज़ीम गुनाहों पर,
मैं भी कोशिश करूं कि रहूँ सिर्फ, तेरी राहों पर,

आज बस इतना ही कह पाऊंगा ऐ मेरे हमदम,
साथ आऊंगा मैं तेरे अब मिला क़दम से क़दम,

रेल रुकने को है, पर सफ़र ज़िन्दगी का बाक़ी है,
और सफ़र ये,  तेरे  अब साथ मैं बिताऊंगा,

माना कल लौट कर आना है मुझे फिर वापिस,
उदास मत होना , तेरे पास मैं फिर आऊंगा.......

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

“संजीव” की कहानी में...



कुछ भी क़ायम नहीं , इस तेरी  दुनिया-ऐ-फ़ानी में,
चार दिन मुश्किल से मिले हैं इस, बेरंग सी जवानी में,
कुछ दिनों का ही सही, तेरा साथ अगर मिल जाता,
ख़ुशबू-ओ-रंग भर जाते इस तनहा  सी ज़िन्दगानी में........

मैंने माना कि तेरे कितने ही आशना होंगे,
बहुत  मजनूँ हुए दुनिया-ऐ-आनी-जानी में,
यूं तो कितने ही किस्से हैं घुले फिज़ाओं  में,मगर
फ़र्क है थोडा सा तेरे “संजीव” की कहानी में.......

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

उसका पत्थर कहाँ पिघलता है...............



जब घटा आसमां पर छाती है , मेरी यादों से ग़म बरसता है,
जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून  रिसता है।

दूर जब कोई गीत सुनता हूँ , एक उदासी सी चली आती है ,
चांदनी बादलों से छन-छन के , मुझमें इक आह सी जगाती है,
तारे सब मुझपे मुस्कुराते हैं , चाँद छुप-छुप के मुझपे हंसता है।

मुझमें क्या दर्द है जो पलता है , आज तक मैं समझ नहीं पाया,
जिसको कर याद कुछ सुकूं पाऊं ,मुझको वो ख्व़ाब  तक नहीं आया,
मेरा दामन है पकड़े मायूसी , ग़म मेरे साथ -साथ चलता है .


लोग ख़ुशियाँ  कहाँ से लाते हैं , ख़ुद से अक्सर सवाल करता हूँ,
सूनी आंखों से देखता रहकर , देर तक सोच में गुम रहता हूँ ,
जब , बांह बांहों में डाल राहों में , कोई जोड़ा हसीं निकलता है .

हमको  उम्मीद आसमां से थी, सितारे “संजीव” के  भी बदलेंगे
घिस के माथा ये उसकी चौखट पे, हम मुक़द्दर ये हक़ में कर लेंगे,
पर ,जिसको कहते हैं मन्दिरो-मस्जिद , उसका पत्थर कहाँ पिघलता है.

रविवार, 1 सितंबर 2013

ये खवाब अगर है तो...........

कुछ कहना चाहता हूँ,पर लफ्ज़  नहीं मिलते,
कुछ घुमड़ रहा दिल में, जो बाहर नहीं आता,

इक  अजब सी  बेचैनी, में कट  रहे हैं दिन ये ,
एक  घुटन है जिससे मैं, उबर अब नहीं पाता,

मालूम    अगर   होता, तक़दीर जीतती है,
ये  इल्म-हुनर कुछ भी  , मैं साथ नहीं लाता,

है  दुनिया   हक़ीक़त तो , "संजीव" पे भारी है,
ये    ख्वाब   अगर है  तो, भुलाया  नहीं जाता ......