गुरुवार, 29 अगस्त 2013

यूं नादाँ न हो कोई......

ख़यालों     की   मेरी दुनिया, मेरे ख़्वाबों की वो जन्नत,
जहां    हसरत     न हो कोई,   जहां   अरमां न हो कोई,

मयस्सर हो   जहां   सब कुछ सुकूं से ज़िन्दा  रहने को,
न हो ग़ुरबत,  न हो मजलूम,जहां मुफ़लिस  न हो कोई,

जहां   दिल सबसे   मिलता हो, किसी से न अदावत हो,
जहां इक   फूल हो   हर  हाथ में,   पत्थर   न हो   कोई,

जहाँ   वो    साथ   हों    मेरे , मैं हूँ जिनकी  दुआओं में,
वफ़ा   ऎसी    निबाहें हम ,      निभा पाया न  हो कोई,

जहां   उन    गेसुओं   की    छांव   में, बीते उमर सारी,
जहां     रौशन   तारीक़ी है,    जहां   सुबहा  न  हो कोई,

तुम्हीं   "संजीव"   गफ़लत   में किया करते हो ये बातें,
कोई     अहमक,  कोई   मासूम,  यूं   नादाँ   न हो कोई......

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

दुश्मन से निभाते हैं...............

अवसाद की घड़ियाँ हैं,तन्हाई के लम्हे हैं,
तुम्हें क्या बताएं कैसे हम दिन ये बिताते हैं,

बेज़ार हो चुके हैं इस क़द्र ज़िन्दगी से,
रेखाएं उमर वाली हम खुद ही मिटाते हैं,

वो हैं नसीब वाले जिन्हें जीस्त रास आयी,
हम जी रहे हैं जैसे दुश्मन से निभाते हैं,

"संजीव" खेल है ये, इक सिर्फ मुक़द्दर का,
किस्मत की तरह वो भी अब हमको सताते हैं..........

सोमवार, 19 अगस्त 2013

मुझको भी आज़ाद कर दो..........



आज तुम मुझको भी आज़ाद कर दो,

अपनी ख्वाहिश से , तमन्ना से,
जो न पा सकूं उसकी  हसरत से,

मेरे अरमानों में भरी इस शिद्दत से,
मेरे वजूद में समाई मुहब्बत  से,

इस शायराना तबीयत और
मेरी इस आशिक़ाना फितरत से,

बहुत जी लिया मैं इक ख़याली शदाब दुनिया में,
आईना-ऐ-हक़ीक़त दिखाओ, मुझे नाशाद कर दो......

आज तुम मुझको भी आज़ाद कर दो.

कर दो आज़ाद मुझे मेरी ही हर ख़ुश फहमी से,
कर दो आज़ाद मुझे मेरी ही बद गुमानी से,

मैं था मसरूफ मेरे अशआर-ग़ज़ल-नज्मों में,
रू-ब-रू फ़िर  मेरे ये दुनिया-ऐ-फ़ानी कर दो,

लगा होने है  कुछ बेज़ार "संजीव", अब इस किस्से से,
ख़त्म तुम आज ये नाज़ुक सी कहानी कर दो,


कर दो नाबूद तुम मेरा ये महल हसरत का,

अपनी हस्ती से  मकां और का आबाद कर दो.......


आज तुम मुझको भी आज़ाद कर दो...

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

कौम से हूँ बिरहमन...........

क्या रस्ता, क्या मंज़िल , क्या दुनिया, क्या "महफ़िल",
क्या   सहरा,    क्या     गुलशन ,  क्या उनका नशेमन,

सभी    से     ही    हैं ,अब    तो     वाक़िफ      बखूबी,
कहीं        भी    नहीं    अब     तो   टिकता है ये मन,

उन्हीं      के     ही    क़दमों    में    है ज़ीस्त अब तो,
के     जिनसे     हमेशा   ही    रहती   है      अनबन,

न      था     मैं     भी     हक़   में,    के  पूजूं बुतों को,
करूं     क्या      मगर    कौम     से    हूँ    बिरहमन,

मेरी      ग़ज़लों    के रंग,   मेरी   नज़्मों  की खुशबू,
सब    उसी   ने  अता   की ,   सब उस  को है अरपन ,

 जिस   तरहा , पेश   आये   हैं      "संजीव" से वो ,
पेश     आये    ,रकीबों   से     न   कोई दुश-मन ......




बुधवार, 14 अगस्त 2013

क्या हमको जताते हो...........

चुप-चाप से आते हो ,   खामोश से जाते हो,
किस बात का गुस्सा है जो हमको दिखाते हो,

माना के   आप ही से,   है रौनके-महफ़िल ये,
हम में भी कुछ तो होगा, क्या हमको जताते  हो,

क़ायल हैं हम तो खुद ही, हर आप की अदा के,
जो आप पे मरता है, क्यूं उसको मिटाते हो,

माना के चमन महके, है आपकी ख़ुशबू से,
हम से है रंगे-गुलशन, तेवर क्या दिखाते हो,

कमतर न मुझे आंको, मैं इश्क़े-इलाही हूँ,
तुम नखरे ये फ़िरदौसी, यहाँ किसको दिखाते हो,

"संजीव" की क़िस्मत में तन्हाई ही है लिक्खी,
तुम आये भला कब थे, जो जा के दिखाते हो....