शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

परदेस में प्रणय दिवस ........

रुत विरह की चल रही थी , दिन प्रणय का आ गया ,
इम्तहाँ ये ही बचा था , आज ये भी आ गया ।

देखता हूँ आज मैं , इक फूल सबके हाथ में ,
महसूस करता हूँ कोई काँटा गले में आ गया ।

थे कभी इक डाल पर , अब हैं अलग पिंजरों में हम ,
दीद भी मुमकिन नहीं ,ये तक ज़माना आ गया ।

चंद सिक्कों के लिए आ तो गया परदेस मैं ,
पर छोड़ना क्या-क्या पड़ा ,फ़िर याद सब कुछ आ गया ।

तेरे हाल का तनहाई का , अहसास था पूरा मुझे ,
छोड़कर महफ़िल भरी , कमरे में अपने आ गया ।

प्रणय दिवस परदेस में आया है बस कुछ इस तरह ,
जैसे छिड़कने घाव पर कोई नमक है आ गया ।

आज सब हैं घूमते जोड़े से बगलगीर हो ,
बीता ज़माना साथ ले तन्हाइयों में आ गया ।

परदेस था तुम दूर थे ,मैं और क्या करता भला ,
आज बस इक रस्म सी, मैं हूँ निभाकर आ गया ।

यादें तेरी बांहों में भर , तेरा ख़याल चूमकर ,
तेरे नाम का इक फूल अलमारी में रख कर आ गया ।

तुम भी वहाँ इक फूल पर मेरा नाम लिख , होठों से छू ,
जूडे में टांक , आइने में देखना, मैं आ गया ।

'संजीव' जा कह दे उन्हें , के दिल न वो छोटा करें ,

जीवन , प्रणय बन जायेगा , जो देस वापस आ गया ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

तुम न आओगे तो..........


तुम हो रूठे हुए या शरमाये ,
फ़िर दुबारा इधर नहीं आए ,
जब से तुम पर क़लम उठायी है ,
बैठे हो क्या क़सम कोई खाए ?
ऐसा क्या कह दिया भला मैंने ,
चंद अल्फाज़ बस तारीफ़ में ही बोले थे ,
ज़िन्दगी बेरंग थी,ये मेरी,मेरी तरह से ही,
तेरी आमद ने ही कुछ रंग इसमें घोले थे ,
तुम न आओगे तो फ़िर कौन यहाँ लिक्खेगा,
और भला कौन मुहब्बत के तराने गाये ।
भा गयी थी तेरी फितरत वो मुस्कुराने की ,
बाद मुद्दत के क़लम अपनी मुस्कुराई थी ,
तुमसे पहले तो ज़िन्दगी थी, एक स्यापा सी,
तुमसे पहले तो इक दुश्मन सी ये खुदायी थी ,
तुम तुमन आओगे तो फ़िर मायूसियां वही होंगी ,
और तेरा गम ये , न इस बार मुझे डस जाए ।
तुमको मंज़ूर नहीं ग़र मेरा यूँ लिखना तुम पर ,
ठीक है ये ही सही , अब ये भी कर ही जायेंगे ,
एक इकलौती ,अकेली खुशी ने लिखवाया ,
गम तो अनगिन हैं भला क्यूँ नहीं लिखवायेंगे ,
तुम न आओगे तो फ़िर वो ही लिखा जाएगा ,
आँख नम ही न रहे जिससे ,छलक ही जाए ।
तुम न आओगे तो दीवाना कहाँ जायेगा ,
तुम से होकर ही निकलती है हरेक राह मेरी ,
तुम न आओगे तो न चैन से रह पाओगे ,
तुमको ख़्वाबों में जगायेगी हरेक आह मेरी ,
तुम न आओगे तो फ़िर कैसे जिया जायेगा ,
तुम ही बतलाओ कोई कैसे ख़ुद को समझाए ।
तुम न आओगे तो बेमानी है सबका आना ,
तुम न आओगे तो बेकार हैं सारी बातें ,
तुम न आओगे तो कोई दिन न सुनहरा होगा ,
और मनहूस लगेंगी ये चांदनी रातें ,
तुम न आओगे तो 'संजीव ' मर ही जायेगा ,
बिन तुम्हारे यहाँ जीना है अब किसे भाये ।
तुम हो रूठे हुए या शरमाये ?

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

ज़िन्दगी राम का बनवास नहीं है.......

रंजो ग़म के हर तरफ़ है राक्षस ,
हर घड़ी -हर पल सिरफ़ संत्रास है ,

ज़िन्दगी राम का बनवास नहीं है ,
ज़िन्दगी सीता का लंकावास है ,

वक्ते-बद हंसता है , बैठ रावण सा ,
अच्छे समय के राम की बस आस है ,

उम्मीद के लक्ष्मण हैं धरती पर पड़े ,
ज़िन्दगी तनहा , बहुत उदास है ,

हौसले का वानर भी आया नहीं ,
मुंदरी दिलासे की उसीके पास है ,

पिछले जनम के पाप बन गए मंथरा ,
ये सब लगाई उसकी ही तो आग है ,

पर, असुरों से ये दुर्दिन जलाए जायेंगे ,
उम्मीद ने छोड़ी न अब तक साँस है ,

दस सर का ये बद वक्त माना है प्रबल ,
अच्छे समय का तीर इक पर्याप्त है ,

अच्छा समय भी ज़िन्दगी को ढूंढता है ,
उसके दिल में भी चुभी ये फाँस है ,

एक दिन होगा मिलन फ़िर से वही ,
वक्त का लगना अलग एक बात है ,

'संजीव' वक्त अच्छे बुरे की जंग में ,
जीतेगा वो जिस पर बड़ा विश्वास है ।

रविवार, 18 जनवरी 2009

आँख भी अब तो नम नहीं करता...........

आजकल हिचकियाँ नहीं आतीं ,
याद शायद कोई नहीं करता ,

वो भी अब हो गया सयाना है ,
वक़्त बरबाद वो नहीं करता ,

मैंने भी छोड़ दीं सब उम्मीदें ,
अब कोई भी भरम नहीं करता ,

वक्त भी हो गया ख़ुदा जैसा ,
दुश्मनी ये भी कम नहीं करता ,

मुझको क्या हो गया ख़ुदा जाने ,
अब किसी ग़म का ग़म नहीं करता ,

दुनियाँ ने कर दिया है पत्थर सा ,
आँख भी अब तो नम नहीं करता ,

मौत आना ही एक हल है यहाँ ,
रंज से कोई भी नहीं मरता ,

देख लो हमको हम भी ज़िंदा हैं ,
ग़म किसी को ख़तम नहीं करता ,

साँस पर साँस लिए जाता है ,
'संजीव' तू भी शरम नहीं करता ।

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

इतना ग़म न कोई पायेगा आगे अब ............

इतना ग़म न कोई पायेगा आगे अब ,
सिलसिला ये खतम , मैं ही आखीर हूँ ।

बदनसीबी की इक ज़िंदा तस्वीर हूँ ,
गौर से देखिये ग़म की तहरीर हूँ ।

बोझ हूँ इक मैं ख़ुद अपनी ही रूह पर ,
ख़ुद के सीने में चुभता हुआ तीर हूँ ।

मुस्कुरा ना सका दो घडी भी कभी ,
इन लबों पे उदासी की ज़ंजीर हूँ ।

एक चिलमन हूँ मैं हर खुशी के लिए ,
ख़ुद की आँखों में ठहरा हुआ नीर हूँ ।

हूँ ख़ुशी मैं रकीबों के दिल में दबी ,
खैरख्वाहों के दिल में छिपी पीर हूँ ।

तेरी बस्ती यहाँ से है दिखती नहीं ,
रंज की दुनियाँ का एक रह्गीर हूँ ।

शाहज़ादा हूँ मैं ही बुरे वक्त का ,
क़िस्मते-बद की मैं ही तो जागीर हूँ ।

कोशिशों में मेरी, ना थी कोई कमी ,
जो नसीबा से हारी वो तदवीर हूँ ।

ख़्वाब 'संजीव' के अब न देखे कोई ,
जो बिगड़ के न संवरे वो तक़दीर हूँ ।