रुत विरह की चल रही थी , दिन प्रणय का आ गया ,
इम्तहाँ ये ही बचा था , आज ये भी आ गया ।
देखता हूँ आज मैं , इक फूल सबके हाथ में ,
महसूस करता हूँ कोई काँटा गले में आ गया ।
थे कभी इक डाल पर , अब हैं अलग पिंजरों में हम ,
दीद भी मुमकिन नहीं ,ये तक ज़माना आ गया ।
चंद सिक्कों के लिए आ तो गया परदेस मैं ,
पर छोड़ना क्या-क्या पड़ा ,फ़िर याद सब कुछ आ गया ।
तेरे हाल का तनहाई का , अहसास था पूरा मुझे ,
छोड़कर महफ़िल भरी , कमरे में अपने आ गया ।
प्रणय दिवस परदेस में आया है बस कुछ इस तरह ,
जैसे छिड़कने घाव पर कोई नमक है आ गया ।
आज सब हैं घूमते जोड़े से बगलगीर हो ,
बीता ज़माना साथ ले तन्हाइयों में आ गया ।
परदेस था तुम दूर थे ,मैं और क्या करता भला ,
आज बस इक रस्म सी, मैं हूँ निभाकर आ गया ।
यादें तेरी बांहों में भर , तेरा ख़याल चूमकर ,
तेरे नाम का इक फूल अलमारी में रख कर आ गया ।
तुम भी वहाँ इक फूल पर मेरा नाम लिख , होठों से छू ,
जूडे में टांक , आइने में देखना, मैं आ गया ।
'संजीव' जा कह दे उन्हें , के दिल न वो छोटा करें ,
जीवन , प्रणय बन जायेगा , जो देस वापस आ गया ।
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जवाब देंहटाएंक्या बात है संजीव जी
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक लिखा है, अच्छी रचना
.चंद.......सिक्कों.. के.लिए.. आ गया परदेश में....इस्सी से सपष्ट है की आपको देश से दूर होकर भी देश कितना याद है....बहुत ही अच्छा लिखा है...
जवाब देंहटाएंचंद सिक्कों की कीमत जब शिद्दत से महसूस होती है तो देश छोड़ना भी नही अखरता, पर जब सिक्के भरे हों पर अपनापन न मिले तो अपना देश ही प्यारा लगता है.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल सभी एक से बढ़ कर एक है.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
Sanjeev ji,
जवाब देंहटाएंBhot khoob...! her she'r dil chu gya...Bdhai...!!
एक बहुत ही ह्रदय-स्पर्शी
जवाब देंहटाएंभावुक रचना ......
अपनी मिट्टी से जुड़े होने का
सच्चा एहसास .....
मुबारकबाद स्वीकार करें . . . .
---मुफलिस---