सोमवार, 20 जनवरी 2014

कोई बात नहीं......



इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं....

मैं शाम ठिठुरता सर्दी में, जब कमरे अपने आता हूँ,
इक प्याली काली कॉफ़ी की, जब अपने लिये बनाता हूँ,
तब तुम स्मृति में आती हो,के  जब हम साथ में होते थे,
तुम सदा मेरा प्याला पहले, तब  पानी गरम से धोते थे,
तब चाय साथ पी हम दोनों ,कुछ अच्छे सपने बुनते  थे
और तुमसे दिनभर की बातें, हम हाँ-हूँ करते सुनते थे,

अब कोई न कहने वाला है, यहाँ कोई न सुनने वाला है,
हम निपट एकाकी कमरे में, रहते हैं, कोई बात नहीं....

है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं..........

तुम उधर अकेली सर्दी में, इस विरह अग्नि में तपती हो,
कब शनिवार आये तो मिलें, तुम चुप-छुप रोज़ सिसकती हो,
ये कम्बल, चादर और लिहाफ़, कब सर्दी से लड़ पाते हैं,
जब तुम बांहों में होती हो, कब माघ और पूस सताते हैं,

बस मात्र निकटता तुमहारी, मौसम सब सुखप्रद करती है,
तुम बिन सारी सुविधाएं भी, बन कर इक बोझ अखरती हैं,
 
हम साथ में फ़िर होंगे इक दिन, ये विरह के दिन भी बीतेंगे,
मन से हैं निकट हमेशा हम, तन दूर हैं कोई बात नहीं....

इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं......   संजीव मिश्रा

हरो श्रान्ति ......

ये गौरवर्ण मुख वलयाकार, दे चन्द्र भ्रान्ति,
सम कलानाथ है व्याप्त, म्रदुल इक मधुर कान्ति,
है जहाँ पवित्रता छाई, नहीं मालिन्य है कोई,
प्रिये दर्श मात्र तुमहारा, देवे वर हमें शान्ति,

ये भाल विशाल पे आते केश पयोधर जैसे,
उपनेत्र के दोनों  भाग, कलुष रजनीकर जैसे,
ये अधर, द्वय, नव विकसित पत्र कमलिनी जैसे,
इक दृष्टिपात तुमपर विनशे सब सारी क्लान्ति,

लघु चिबुक,कपोल कोमल ये, नेत्र ये कौड़ी सम,
ये मुखमंडल का तेज करे हृद-स्पंदन कम,
ये उन्नत नासा तीक्ष्ण, हुए हत-आहत हम,
संजीव” के तुम ही भिषज, आओ ये हरो श्रान्ति .........संजीव मिश्रा

इंतेज़ाम करता हूँ....


सर झुकाकर सलाम करता हूँ, उनको अपना पयाम करता हूँ,
जिनको पाना नहीं मुक़द्दर में, आज जां उनके नाम करता हूँ,

वो हैं मगरूर हुस्न पर अपने,
मैं हूँ मजबूर इस मुहब्बत से,
मुझ-से कितने हैं, उन सा कोई नहीं,
जलवों का उनके, मैं अहतराम करता हूँ...........

जीना उन बिन, गुनाह लगता है ,
ये जहां ख्वामख्वाह लगता है,
उसको पाने की जुस्तजू में ही,
अपनी सुबहों को शाम करता हूँ.............

ग़ैर का आगोश ही, उनको अज़ीज़ लगता है,
मेरा कुछ कहना भी, उनको अजीब लगता है,
अब तो शायद यही अपना नसीब लगता है,
दिल को समझा लूं यही, अब तो काम करता हूँ...........

न जाने कितने दिवाने, फ़ना हुए हैं यहाँ,
हसरतें कितनी यहाँ, दफ्न हुई हैं यूं ही,
वो न मिल पाये तो “संजीव” जियेगा कैसे,
खैर, इसका भी कुछ,अब इंतेज़ाम करता हूँ......संजीव मिश्रा

प्रारब्ध


भाग्य फलति सर्वत्रम , न च विद्या ,न च पौरुषम ,
हम भी कहाँ सहमत थे इससे , किंतु अंततः माने हम ।

क्रियमाण कर्मों का बल, प्रारब्ध समक्ष पड़ जाता कम,
कब कर्म ये संचित जीने दें, करते हैं लाख परिश्रम हम,

प्रबल वेग रत रथ कर्मों का , भाग्य पवन से जाता थम,
कर्म से सब मिल जाता तो, क्यों कौन किसी से होता कम,

सुख के लिए सौ-लाख जतन ,पर बिना प्रयत्न पा जाते ग़म,
सबके चेहरे खिले-खिले, बस आँख मेरी ही रहती नम ।

सत्य जगत में, एक दैव का ,शेष सभी ये करम, भरम,
आज मिला फल हमको उनका , जनम जो पिछले किए करम ।

पर क्या बोलें उस जीवन को, जो था, अपना प्रथम जनम,
देखें तो सब व्यर्थ है ये ,पर सोचें तो है गहन मरम ।

है क्रियमाण ये कर्म मेरा, मैं लिखता हूँ, है प्रिय क़लम,
पर 'संजीव' का है प्रारब्ध यही , के लोग उसे पढ़ते हैं कम । ......संजीव मिश्रा

हुशियार हैं....

हो गयी है ख़ता, हम ख़तावार है,
आपकी माफ़ियों के तलबगार हैं,

अब भी नादान हैं, कब सयाने हुए,
अब भी बचकाने से, अपने मेयार हैं,

आपको दोस्त अपना, समझ बैठे हम,
दें सज़ा, आप अब जो भी, तैयार हैं,

की ख़ता, हम मुख़ातिब, हुए आपसे,
न हमें इल्म था, हमसे बेज़ार हैं,

फ़िर ये नादानियाँ, अब न दोहराएंगे,
आज से हम भी “संजीव” हुशियार हैं.... संजीव मिश्रा