सोमवार, 25 नवंबर 2013

“संजीव” भर गया था.......



ज़ुल्फ़ों से  खेलती वो, कमसिन हसीन लड़की,
माहौल   को    नूरानी , करती हसीन लड़की,

आयी थी  वो   नहाकर और धूप  में खड़ी थी,
मैं   जा रहा था यूं ही, उस पर नज़र पड़ी थी,

कुछ   बाल   घूमकर जो, गालों पे आ रहे थे,
उस   ख़ूब-सूरती   को ,  दुगना  बना रहे थे,

था    पैरहन वो सादा,  पर उसपे फ़ब रहा था,
छोटा सा  नाक पर वो,  इक फूल जंच रहा था,

मैं  ठिठक  गया भौंचक, आगे मैं बढ़ न पाया,
पर   लोग   देखते  हैं, दिल  में ख़याल आया,

आगे   मैं  थोड़ा  जाकर, वापस गली में आया,
उसे  फ़िर से  देखने का, अरमां मिटा न पाया,

वो   थी   उसी जगह पर, मुझे देख मुस्कुराई,
था हिल गया कलेजा, कुछ पल न सांस आयी,

वो    आखें   दो पनीली, पतली लकीर से लब,
वो   पंखुरी   सी  पलकें, देखूंगा अब भला कब ,

कस्तूरी   की महक थी, सौ चाँद की चमक थी,
जो   देखी कहीं न मैंने ,वो कमर में लचक थी,
  
चन्दन   की थी वो मूरत, पुखराज की लड़ी थी,
उस   जैसी   ख़ूबसूरत,  देखी  न,बस पढ़ी थी,

समझाया दिल को मैंने, ये दुनिया ख्व़ाब है बस,
ये  ख्व़ाब  टूटना  है,  सब  झूठा जाल है बस,

ये   कमसिनी,   नज़ाकत,  ये  ख़ूबसूरती  सब,
है   वक़्त की  अमानत,  वो जाएगा मिटा सब,

ये    सोचकर   गली को मैं पार कर गया था,
ये बैराग  मेरे  भीतर,   “संजीव” भर  गया था   ............संजीव मिश्रा

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

कुछ फ़ख्र हासिल है.............



जिसे भी  प्यार  से देखा उसी को कर लिया अपना,
तेरे नाचीज़  को  थोड़ा  सा ये, कुछ फ़ख्र हासिल है,

मेरे  चेहरे   पे  नुमायाँ,   ये   मेरी  रूह पाक़ीज़ा,
ख़ुदाई  बन्दा कहलाने का मुझे, कुछ फ़ख्र हासिल है,

यूं   तो मैं  नर्म दिल इंसां की तरहा जाना जाता हूँ,
मुझे तूफां  खड़े  कर देने  का, कुछ फ़ख्र हासिल है,

नहीं   परवाह करता बहर की या रुक्न की कुछ भी,
सराहो तुम जिसे, लिख देने का, कुछ फ़ख्र हासिल है,

ये   दीगर  बात है,  मेरी  क़लम महरूमे-शौहरत है,
मगर दिल में उतरने का मुझे , कुछ फ़ख्र हासिल है,

मैं  आँखें  नम हूँ  कर देता, तबीयत शाद कर देता,
तेरा “संजीव” कहलाने का मुझे, कुछ फ़ख्र हासिल है....................संजीव मिश्रा

तारीफ़ या शोहरत...

मेरी  वो  सात और  छह  साल  की दो  बेटियाँ प्यारी,
उन्हीं   तक   है मेरी दुनिया, उन्हीं से है  मेरी ज़न्नत,

सिला  वो  उन  सबाबों का,  किये पिछले जनम मैंने,
हुए  सौ ज़ुल्म  मुझ पर, भारी है बस इक यही रहमत,

उन्हीं   के    भाग  से  है  पेट-रोटी,  तन मेरे कपडे,
वो   जीवन  का  उजाला हैं, वही घर की मेरी बरकत,

मैं  तो  हूँ बस,  रियाया इक, वो दो शहज़ादियां  मेरी,
उन्हीं के ही तो दम पर है टिकी इस घर की सल्त-नत,

वो   न  आँखों   का तारा  हैं, न लाठी का सहारा हैं,
रगों   में   दौड़ता  लोहू,  वो मेरे  ज़िस्म की हरक़त,

उन्हीं   के   ही  सहारे  अब  थमी  ये  ज़िंदगी मेरी,
उन्हीं  तक हर  दुआ मेरी, उन्हीं तक हर मेरी मन्नत,

दुआ   दो   बस   कलेजे  से मेरे  होएं  जुदा न वो,
नहीं   “संजीव”  को   कुछ  चहिये तारीफ़ या शोहरत......

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

लिख पाये न........



इस    माया   से  मोह   भंग   हो पाये न,
इन सुन्दर मुखड़ों का आकर्षण,  जा  पाये न,

ये    कमनीया    कायाएँ  लुभाती हैं मुझको,
ये    क्षीण-कटि   का पाश मुझे तज पाये न,

ये    पटर-पटर-पट बातें,  नैन  चंचल तिरछे,
भ्रू-वक्र,   ओष्ठ-रक्ताभ,  ह्रदय   बच पाये न,

ये    कोमल-कोमल देहें, गौर रक्तिम-रक्तिम,
इस   इंद्रजाल   से इतर तो कुछ जंच पाये न,

चहुँ    ओर   देख  यौवन-मंदिर चलते-फ़िरते,
ये   दीन   पुजारी    भजे  बिना रह पाये न,

ये   गर्वीले –  उद्दाम – प्रबल –उन्मत - जोबन,
ये    दुर्बल   प्रेमी चित्त विकल, सुख पाये न,

ये   श्रांगारिक,   रसपूर्ण   जगत देखूं भौंचक,
अतृप्त   आत्मा व्यथित,    ठौर कहीं पाये न,

“संजीव”   तू  कवियों जैसी  बात करता  किन्तु,
कामिनियाँ जिसे सराहें ,वो गीत लिख पाये न.........संजीव मिश्रा