गुरुवार, 11 मार्च 2021

मुबारकबाद इस दिन की.....

तुम्हें सौ साल तक बोलूं मुबारकबाद इस दिन की,
न ऐसा दिन कभी आये के ना हो याद इस दिन की।

रहे सौ साल तक रौशन तुम्हीं से घर हमारा ये,
यूं ही खिलता-दमकता सा रहे मुखड़ा तुम्हारा ये,
तुम्हारे साथ हों सुबहें, तुम्हारे साथ हों शामें,
तुम्हारे साथ में बीते हरेक दिन-रात जीवन की।


न ऐसा दिन कभी आये के ना हो याद इस दिन की।

कमी कुछ न कहीं भी हो, मिटे खुशियों से हर दूरी,
न हसरत कुछ रहे, हों सब तुम्हारी ख्वाहिशें पूरी,
छलकता हो हृदय सुख से, मिले समृद्धि हर तुमको,
हों पूरे सब तुम्हारे स्वप्न, और  हर कामना मन की।


न ऐसा दिन कभी आये के ना हो याद इस दिन की।

तुम्हें सौ साल तक बोलूं मुबारकबाद इस दिन की,
न ऐसा दिन कभी आये के ना हो याद इस दिन की।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

कोई मेरे दिल से पूछे , तेरे तीरे-नीमक़श को, 

ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता.    - ग़ालिब

शनिवार, 13 जून 2020

रब दिख गया है........

रब दिख गया है........

ये तिरछी निगाहें, ये भौंहें कटीली,
अधर ये रसीले, नसीका नुकीली ,

ये गहरा सा काजल, ये गेसू के बादल,
ये तीखे से तेवर, जवानी के जेवर,
तुम्हें देखकर कोई, क्या बोल पाये,
जुबां हुस्न पर तेरे, क्या खोल पाये,

बस इतना कहेंगे, के कुछ न कहेंगे,
तुम्हें देखकर सिर्फ, चुप ही रहेंगे,

ये काला सा तिल इक, ग़ज़ब ढा रहा है,
तुम्हें देख कर दिल सुकूं पा रहा है,

ये इक बाद मुद्दत, के कुछ, कह है पाई,
ये तस्वीर तेरी, क़लम को है भायी,

तेरे क़दमों में  आज सर झुक गया है,
के “संजीव “ को आज रब दिख गया है ............संजीव मिश्रा

बार-बार क्यूँ............

बार-बार क्यूँ............

है किसका इंतज़ार जाने, किसकी जुस्तजू,
दरवाज़े पे उठती नज़र, है बार-बार क्यूँ,

हर बार हर महफ़िल से हम ही बेदख़ल हुए,
तनहाई का ये बोझ सर पे, बार-बार क्यूँ,

लगती अधूरी सी है क्यूँ, अपनी ही शख़्सियत,
मैं क्यूँ उसी पर जाऊं हूँ, यूं बार-बार क्यूँ,

कुछ बात है दिल में, कोई जो कह न मैं सका,
लिखता हूँ और फ़िर फाड़ता, ख़त बार-बार क्यूँ,

अपनी तरफ़ से बोलता, जब है नहीं कभी,
देता जवाब फ़िर मुझे, वो बार-बार क्यूँ,

वो हुस्न है, मग़रूर है, खुद्दार मैं भी हूँ,
फ़िर भी वही दरख़्वास्त इक, है बार-बार क्यूँ,

उस पर कोई ग़ज़ल - नज़म, सब बेअसर रहे,
"संजीव"तुक मिलाये फ़िर भी, बार-बार क्यूँ........संजीव मिश्रा

ख़्वाब.......

ख़्वाब.........

नाशाद ज़िन्दग़ी के बस्ते में,

मायूसियों का

एक सूखा ब्रश पड़ा था,

आँखों की नम कोरों से

लगाया,  गीला किया,

उदासियों की शीशी से,

यादों के कुछ रंग निकाले,

कोशिशों की

कुछ आड़ी-तिरछी

लकीरें बनायीं,

नाकामयाबियों का शेड दिया,

तोहमतों के बक्से से,

बदनामी का डब्बा उठाया,

रुसवाईयों के कुछ और रंग निकाले,

स्प्रे किया, बॉर्डर बनाया,

फ़िर दूर खड़े होकर देखा,

तो अहसास हुआ,

मैं आईने के सामने खड़ा हूँ,

झुंझलाहट का एक पत्थर

उठाकर दे मारा,

एक बेक़ुसूर आईना बिखर गया,

ख़्वाब भी टूट गया।


आज शायद जल्दी सो गया था,


अब तो शायद नींद भी न आये,

डरता हूँ, कहीं वैसा ही ख्वाब,

दोबारा ना आये.........


संजीव मिश्रा