शनिवार, 13 जून 2020

कभी ऐसी दीवाली आये......

कभी ऐसी दीवाली आये...

कभी ऐसी दीवाली आये...
बाहर मिटें अँधेरे,भीतर भी उजियारा छाये,
कभी ऐसी दीवाली आये........

कहीं अभाव या निर्धनता का लेश रहे ना बाक़ी,
सबकी प्यासी कामनाओं को, हाज़िर हो इक साक़ी,
न कहीं किसी मुफ़लिस की बेटी, बिन ब्याही रह जाये ,
कभी ऐसी दीवाली आये......

मेरे देश से  दुर्योधन और दु:शासन मिट जायें,
कभी-कहीं-कोई बालाएं न जबरन नोची जायें,
बेटी हो पैदा तो न फ़िर बाप का दिल घबराये,
कभी ऎसी दीवाली आये....

मैं भी रहूँ प्रसन्न , पड़ोसी भी आनन्द मनाये,
हर कोई अपनी मेहनत का समुचित प्रतिफल पाये,
घर तेरे होकर माँ लक्ष्मी, “संजीव” के घर भी आये,
कभी ऎसी दीवाली आये........................संजीव मिश्रा

अखरते रहे.......

style="text-align: left;"> अखरते रहे.......
 
साल-दर-साल यूं ही गुज़रते रहे,
ज़िन्दा रहने का हम सोग करते रहे,

कैसा ना जाने कर्मों का इक क़र्ज़ था,
सूद नाकामियों का ही भरते रहे ,

अरमां हरजाई थे, ख़्वाब थे बेवफा,
दोसतों की तरह से मुकरते रहे ,

जिंदगी ना संवर पाई अपनी कभी,
हसरतों की तरह ख़ुद बिखरते रहे,

ऐब था माथे की कुछ लकीरों में ही,
कामयाबी को हम ही अखरते रहे,

जी गये वो जिन्होंने न परवाह की,
हम ग़लत और सही बीच मरते रहे,

रास आया न जीवन ये "संजीव" को,
हादसे हर क़दम पर उभरते रहे। ..........संजीव मिश्रा

शनिवार, 16 नवंबर 2019

...........मेरी बाँहों की माला

मेरी बाँहों की माला


तुम सुन्दर उर्वशी भांति मैं इंद्र देव सा मतवाला,
प्रणय भाव  में नर्तन होता मद मोहित करनेवाला,
तुम बिन मैं और मुझ बिन तुम हैं आधे और अधूरे से,
तुम सुन्दरता की अग्नि मैं प्रेम-प्यार की हूँ ज्वाला,

तुम यदि मादकता हाला की, मैं सोने का हूँ प्याला,
पड़ा नहीं अब तक शायद तुम-हारा हम जैसों से पाला,
तुम क्या हो हम जिसको चाहें उसकी क़ीमत बढ़ जाए,
इक काली सी लड़की को मजनूं ने लैला कर डाला,

हमको भी तुम यूं ही कोई ऐसा वैसा न समझो,
जिसको हमने चुना  कभी उसको अपना ही कर डाला,
मेरे आलिंगन में है कुछ ऐसा अदभुत अमरत्व छिपा,
लालायित कितनीं  पाने को मेरी बांहों की माला,

हूँ, ऊपर से फ़रहाद-ओ-राँझा, मन भीतर बैरागी वाला,
अब  रंग सभी  स्वीकृत जीवन के, सुनहैरा या हो काला,
तुम चाहे कुछ भी समझो पर, ये “संजीव” समझता है,
जीवन दुःख था, जीवन दुःख है, जीवन दुःख देने वाला.......  संजीव मिश्रा

गुरुवार, 30 मई 2019

सोचना पड़ा......

सोचना पड़ा......

देखा जो आज आइना, तो सोचना पड़ा,
जो दिख रहा है सामने, वो क्यूँ उदास है,

नाक़ामियाँ-ज़िल्लत-ओ-ग़ुरबत, बिगड़ा मुक़द्दर,
क्या चीज़ है जो आज नहीं इसके पास है,

आंख इक अश्क़ों भरी है चीज़ मामूली,
मेरी हँसीं में है छिपा जो दर्द, ख़ास है,

प्यास-भूख और नींद तो हैं साथ हमेशा,
जो खो गयी कमबख्त वो इक चीज़, आस है,

संजीव को कुछ था भरोसा अपने आप पर,
अब घूमता खोये हुए होशो-हवास है।

देखा जो आज आइना, तो सोचना पड़ा,
जो दिख रहा है सामने, वो क्यूँ उदास है।  ........ संजीव मिश्रा

रविवार, 5 मई 2019

सारे दांव............

सारे दांव............

जेठ दुपहरी, नंगे पाँव,
सर न छतरी न कोई छाँव,
दूर-दूर तक निर्जन पथ है,
न कोई नगरी, न कोई गाँव ।


चलते जाना ही नियति है,
क्रूर समय की बहुत गति है,
सब पड़ाव पर अपने-अपने,
अपने हिस्से ठौर न ठाँव......


सभी प्रयास असफल ही निकले,
निठुर दैव के भाव न पिघले,
कर्म -भाग्य की बिछी थी चौसर,
उल्टे बैठे सारे दाँव......


जेठ दुपहरी, नंगे पाँव....... संजीव मिश्रा