सारे दांव............
जेठ दुपहरी, नंगे पाँव,
सर न छतरी न कोई छाँव,
दूर-दूर तक निर्जन पथ है,
न कोई नगरी, न कोई गाँव ।
चलते जाना ही नियति है,
क्रूर समय की बहुत गति है,
सब पड़ाव पर अपने-अपने,
अपने हिस्से ठौर न ठाँव......
सभी प्रयास असफल ही निकले,
निठुर दैव के भाव न पिघले,
कर्म -भाग्य की बिछी थी चौसर,
उल्टे बैठे सारे दाँव......
जेठ दुपहरी, नंगे पाँव....... संजीव मिश्रा
क्रूर समय की बहुत गति है,
सब पड़ाव पर अपने-अपने,
अपने हिस्से ठौर न ठाँव......
सभी प्रयास असफल ही निकले,
निठुर दैव के भाव न पिघले,
कर्म -भाग्य की बिछी थी चौसर,
उल्टे बैठे सारे दाँव......
जेठ दुपहरी, नंगे पाँव....... संजीव मिश्रा
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