गुरुवार, 3 जुलाई 2014

शायद .........




आज    कुछ दिल बुझा-बुझा सा है,
आज   मैं   फ़िर  उदास हूँ शायद,

आज   वो   दूर-दूर    लगते  हैं,
आज   मैं   ख़ुद के पास हूँ शायद,

उनकी महफ़िल   में आदमी अदना,
बस    अकेले   में ख़ास हूँ शायद,

एक      सपना हूँ अब अधूरा सा,
एक टूटी  सी   आस   हूँ शायद,

दूर  तक   रास्ते    ही  दिखते हैं,
कोई   मंज़िल  ही   नहीं है शायद,

जीना     शायद   इसी को कहते हैं,
ज़िन्दगी    यूं   ही होती है शायद,

मन में     तन्हाइयों  का मौसम है,
महफ़िलों    की गयी है रुत शायद,

ख़ुश हैं वो ही संजीवके दुःख से,
जिन्का   मैं  ग़मशिनास हूँ शायद ...........संजीव मिश्रा

बुधवार, 18 जून 2014

अनूठे हुए



इन दिनों ख़ुद से ही, कुछ हैं रूठे हुए,
ख़ुद से बेज़ार हैं, ख़ुद से टूटे हुए,

आज कोई नहीं, साथ अपने यहाँ,
हाथ उम्मीद तक के, हैं छूटे हुए,

ज़िन्दगी ने किये थे जो, हमसे कभी,
सारी क़समें , वो सब वादे झूठे हुए,

ख्व़ाब सच न हुए, अरमां प्यासे रहे,
बीते दिन, चाँद पानी में, छूते हुए,

फैसले सारे, तक़दीर करती रही,
काम कब कुछ यहाँ, अपने बूते हुए,

क्यों तुम्हारी ही बस, ज़ीस्त गुज़री है यूं,
तुम भी “संजीव” क्यों यूं अनूठे हुए..................... संजीव मिश्रा

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

बहुत हैं................

अब भला फ़ुर्सत कहाँ , शेरों को सुखन को,
अब नून, तेल -आटे की फिक्रें ही बहुत हैं,

अब ज़ुल्फ़ की गिरहें हसीं, ख़्वाबों में भी नहीं ,
इस पैर में अब फ़र्ज़ की, ज़ंजीरें बहुत हैं,

वो याद भी आ जाएँ तो, है शुक्रिया उनका,
वो भूल हमें जाएँ, तो अहसान बहुत हैं,

मिलना नहीं होता है अब,उनसे,न क़लम से,
ख़ुद से भी जो मिल पायें, वो दो लम्हे बहुत हैं,

पहले "संजीव" कहते थे, हर दिन ग़ज़ल, मगर
दो-चार महीनों में अब, ये शेर बहुत हैं .............संजीव मिश्रा

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

अब बात कहाँ हो पाती है.......



अब बात कहाँ हो पाती है.......

हम भी हैं व्यस्त गृहस्थी में,
उन पर भी घर के बंधन हैं,
हैं साथ सदा, पर निकट नहीं,
हम पायल-से, वो कंगन हैं,

अब खन-खन के संग पायल की,
झनकार कहाँ हो पाती है.....

हैं भाव ह्रदय के दबे हुए,
दायित्वों के अम्बारों से,
भीतर का चिर-प्रेमी घायल,
चिंताओं की तलवारों से,

उनको पाने की चाह भला,
साकार कहाँ हो पाती है.......

वो कहते हैं, क्या भूल गये?
हो सपने सारे, धूल गये,
सब पुष्प, प्रिय वचनों वाले,
इस मौन में हो सब शूल गये,

इस उपालंभ में छिपी पीर,
स्वीकार कहाँ हो पाती है........

अब समय नहीं मिलता बिलकुल,
कविताओं को, सम्वादों को,
अब कहाँ निभा पाते हैं हम,
अपनी कसमों को, वादों को,

इक घड़ी भी जीवन की अब तो,
निर्भार कहाँ हो पाती है........

इस मौन में भी है प्रेम छिपा,
हम निकट हैं इस दूरी में भी,
तुम न समझो तो विषय प्रथक,
तुम इस मन-प्राण-ह्रदय में ही,

“संजीव” विरक्ति का, दूरी
आधार कहाँ हो पाती है.............संजीव मिश्रा