आज कुछ दिल बुझा-बुझा सा है,
आज मैं फ़िर
उदास हूँ शायद,
आज वो दूर-दूर
लगते हैं,
आज मैं ख़ुद के पास हूँ शायद,
उनकी महफ़िल में आदमी अदना,
बस अकेले में ख़ास हूँ शायद,
एक सपना हूँ अब अधूरा सा,
एक टूटी सी आस
हूँ शायद,
दूर तक रास्ते
ही दिखते हैं,
कोई मंज़िल ही
नहीं है शायद,
जीना शायद इसी को कहते हैं,
ज़िन्दगी यूं ही होती है शायद,
मन में तन्हाइयों का मौसम है,
महफ़िलों की गयी है रुत शायद,
ख़ुश हैं वो ही “संजीव” के दुःख से,
जिन्का मैं ग़मशिनास हूँ शायद ...........संजीव
मिश्रा
बहुत ख़ूब !
जवाब देंहटाएं