सोमवार, 27 जनवरी 2014

तेरा “संजीव” मैं होता...........

तेरा गुस्सा तेरी मुस्कान से भी ज़्यादा दिलक़श है,
जो पहले जानता तो रोज़ ही नाराज़ करता मैं,

तू मेरी है नहीं तक़दीर में, ये जानता हूँ मैं,
मगर मेरी अगर होती तो ख़ुद पर नाज़ करता मैं,

तेरे दुनिया में आने से, भला पहले मैं आया क्यूं,
तेरे ही साथ अपनी जीस्त का आगाज़ करता मैं,

तू  मुस्तक़बिल मेरा होती , तेरा “संजीव” मैं होता,
फ़रिशतों की तरह ज़न्नत तलक परवाज़ करता मैं...... “संजीव” मिश्रा

सोमवार, 20 जनवरी 2014

उन्हें बता दो...................



ऐ नींद के फरिश्तों, जाकर उन्हें सुला दो,
मीठी सी नींद आये ,लोरी कोई सुना दो,

सब हूरें जन्नतों की, पंखा झुलाएं जाकर,
परियों की पालकी में झूला उन्हें झुला दो,

जब  नाज़नीं-हसीं वो, आगोशे-नींद में हो,
उनको पसंद हो जो, वो ख्वाब तुम दिखा दो,

मेरी ज़िन्दगी की सुबहें, जीवन की मेरी शामें,
उन पर ही हैं निछावर , जाकर उन्हें बता दो,

वो क्या हैं, वो क्या जानें, नादां हैं, बेख़बर हैं,
वो तक़दीर के मालिक हैं, अहसास ये करा दो,

"
संजीव" के जज़्बों को वो जान-समझ पायें,
कोई ऐसा हुनर हो तो , जाओ उन्हें सिखा दो.....संजीव मिश्रा

बेटियाँ प्यारी..................

मेरी वो सात और छह साल की दो बेटियाँ प्यारी,
उन्हीं तक है मेरी दुनिया, उन्हीं से है मेरी ज़न्नत,

सिला वो उन सबाबों का, किये पिछले जनम मैंने,
हुए सौ ज़ुल्म मुझ पर, भारी है बस इक यही रहमत,

उन्हीं के भाग से है पेट-रोटी, तन मेरे कपडे,
वो जीवन का उजाला हैं, वही घर की मेरी बरकत,

मैं तो हूँ बस, रियाया इक, वो दो शहज़ादियां  मेरी,
उन्हीं के ही तो दम पर है टिकी इस घर की सल्त-नत,

वो न आँखों का तारा हैं, न लाठी का सहारा हैं,
रगों में दौड़ता लोहू, वो मेरे ज़िस्म की हरक़त,

उन्हीं के ही सहारे अब थमी ये ज़िंदगी मेरी,
उन्हीं तक हर दुआ मेरी, उन्हीं तक हर मेरी मन्नत,

दुआ दो बस कलेजे से मेरे होएं जुदा न वो,
नहीं “संजीव” को कुछ चहिये तारीफ़ या शोहरत......

कोई बात नहीं......



इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं....

मैं शाम ठिठुरता सर्दी में, जब कमरे अपने आता हूँ,
इक प्याली काली कॉफ़ी की, जब अपने लिये बनाता हूँ,
तब तुम स्मृति में आती हो,के  जब हम साथ में होते थे,
तुम सदा मेरा प्याला पहले, तब  पानी गरम से धोते थे,
तब चाय साथ पी हम दोनों ,कुछ अच्छे सपने बुनते  थे
और तुमसे दिनभर की बातें, हम हाँ-हूँ करते सुनते थे,

अब कोई न कहने वाला है, यहाँ कोई न सुनने वाला है,
हम निपट एकाकी कमरे में, रहते हैं, कोई बात नहीं....

है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं..........

तुम उधर अकेली सर्दी में, इस विरह अग्नि में तपती हो,
कब शनिवार आये तो मिलें, तुम चुप-छुप रोज़ सिसकती हो,
ये कम्बल, चादर और लिहाफ़, कब सर्दी से लड़ पाते हैं,
जब तुम बांहों में होती हो, कब माघ और पूस सताते हैं,

बस मात्र निकटता तुमहारी, मौसम सब सुखप्रद करती है,
तुम बिन सारी सुविधाएं भी, बन कर इक बोझ अखरती हैं,
 
हम साथ में फ़िर होंगे इक दिन, ये विरह के दिन भी बीतेंगे,
मन से हैं निकट हमेशा हम, तन दूर हैं कोई बात नहीं....

इक ये बैरी शीत लहर और दूजे प्रियतम पास नहीं,
है कठिन चुनौती यदपि पर,हम जीतेंगे कोई बात नहीं......   संजीव मिश्रा

हरो श्रान्ति ......

ये गौरवर्ण मुख वलयाकार, दे चन्द्र भ्रान्ति,
सम कलानाथ है व्याप्त, म्रदुल इक मधुर कान्ति,
है जहाँ पवित्रता छाई, नहीं मालिन्य है कोई,
प्रिये दर्श मात्र तुमहारा, देवे वर हमें शान्ति,

ये भाल विशाल पे आते केश पयोधर जैसे,
उपनेत्र के दोनों  भाग, कलुष रजनीकर जैसे,
ये अधर, द्वय, नव विकसित पत्र कमलिनी जैसे,
इक दृष्टिपात तुमपर विनशे सब सारी क्लान्ति,

लघु चिबुक,कपोल कोमल ये, नेत्र ये कौड़ी सम,
ये मुखमंडल का तेज करे हृद-स्पंदन कम,
ये उन्नत नासा तीक्ष्ण, हुए हत-आहत हम,
संजीव” के तुम ही भिषज, आओ ये हरो श्रान्ति .........संजीव मिश्रा