सोमवार, 20 जनवरी 2014

जंग बुरे की अच्छे से...........

शठे-शाठ्यम समाचरेत की नीति तो यह कहती है,
मैं भी पत्थर ले आऊँ ग़र, मुझ पर  ईंट उछलती है,

महावीर-बुध और गांधी का, दर्शन कहाँ प्रासंगिक है,
शठ-धूर्त-मूढ़ के शब्दों में, इक अतिशय घृणा झलकती है,

हूँ सबल-समर्थ मैं हर भांति, देने को उसको हर उत्तर,
पर विनय है लक्षण विद्या का, बस ये ही बात उलझती है,

मैं बात करूँ मानवता की, वो वर्गभेद पर अटका है,
मेरी देशभक्ति पर लिखी कोई पंक्ति भी उसे अखरती है,

वो जो है, जैसा भी है, मुझको कोई हर्ष-विषाद नहीं,
पर मैं जो हूँ, वो क्यों हूँ, उसको बात ये पीड़ित करती है,

“संजीव” को मैं दिन रात यही, बस बात एक समझाता हूँ,
यह जंग बुरे की अच्छे से, हर युग में चलती रहती है........ संजीव मिश्रा

प्रेम पाना है प्रथम..............

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता,
आज की पीढ़ी को ये, शायद अभी तक न पता,

उनके लिए अस्तित्व नारी का सिरफ इक देह है,
पर देह भी मंदिर सृजन का, कोई उनको दे बता,

प्रेम, करुणा और ममता, और समर्पण हैं छिपे,
देह को बस रेशमी, इक आवरण मैं मानता,

देह से आगे कभी, जाकर भी तुम देखो उसे,
अंतःकरण छू पाओ तुम, हासिल करो ये पात्रता,

ऐसा नहीं कि मुझको ये, देहें लुभाएँ न, मगर,
पर प्रेम पाना है प्रथम, “संजीव” इतना जानता.........संजीव मिश्रा

तस्वीर बदल डाली...........

हरी किनारी वाली चोली लाल, बदल डाली,
जो हमको भाई थी तुमने, तस्वीर बदल डाली,

शिष्ट भाव से, मात्र प्रशंसा ही की थी हमने,
श्रृंगार-प्रणय की कोमल कलिका, हाय मसल डाली,

तुम्हरे कान के कुंडल, कुंतल, ओष्ठ, नयन कजरारे,
तुम्हें समर्पित थी कविता वो, चरण कमल डाली,

अब प्रियतम संग दिखती हो, केवल, हमें जलाने को तुम,
क्यों हाय बताओ तुमने कर, ये आँख सजल डाली,

केवल तस्वीर नहीं बदली, है बदल दिया तुमने जग,
“संजीव” से, तुम निष्ठुर ने, उसकी छीन ग़ज़ल डाली .......संजीव मिश्रा

कुछ दाग़ जो मिटाने हैं........


इश्क़ के किस्से हुए पुराने हैं, हुस्न के भी बहुत अफ़साने हैं,
आओ के बैठें साथ मिल कर हम, मुद्दे कुछ और भी सुलझाने हैं......

ज़ीस्त आगे भी है, ऐ दोस्त मेरे, नाज़नीनों के इन रुखसारों से,
मिले माशूक़ से फ़ुर्सत , तो हाल दुनिया का, पूछ इन आज के अखबारों से,
तल्ख़ हालात मुल्क के हैं तेरे , उस हसीं ज़ुल्फ़ के साये बहुत सुहाने हैं....

देख क्या हाल बच्चियों का है, एक हैवान भी शरमा जाए,
नक्सली,अलगाव-वादी, आतंकी, क्या ये इस देश को हुआ जाये,
कौन सी हम सदी में जीते हैं, किस तरहा के ये ज़माने हैं.....

फ़ौज खुद ही नहीं महफूज़ यहाँ, घुस के दुश्मन ही मार जाता है,
और ये बेहया निज़ाम अपना, गीत खैरो-अमन के गाता है,
कोई बोलो इन्हें अभी वापस, सर जवानों के ले के आने हैं.....

बातें होती हैं चाँद मंगल की, आम इंसान नहीं दिखते हैं,
चन्द सिक्कों को और रोटी को, दुधमुहें बच्चे यहाँ बिकते हैं,
मादरीने वतन के दामन पे, हैं ये कुछ दाग़ जो मिटाने हैं........

देशभक्ति है अब नापैद हुई, क्षेत्रीयता भरी दिमाग़ों में,
किसको फ़ुर्सत है राष्ट्र की सोचे, व्यस्त हैं सब , निजी हिसाबों में,
कुछ न कुछ तो पड़ेगा अब करना, सोये अब लोग ये जगाने हैं.....

मुझको मालूम है के बेज़ा है, गूंगे-बहरों से मेरा कुछ कहना,
मुल्क ये, गाँव है इक अंधों का, होता मुश्किल है अब यहाँ रहना,
फ़िर भी "संजीव" देश मेरा है , सारे हथियार आज़माने हैं .......... संजीव मिश्रा

कश्मीरी पंडित ....

पंडित.......
कश्मीरी पंडितों का चर्चा न उन्हें भाया,
इंसानियत का जज़्बा अब तक है नहीं आया,

घड़ियाली आंसू कहते, हमदर्दी को वो मेरी,
इंसान से इंसां का, रिश्ता न नज़र आया,

उन्हें दीखते हैं पंडित, इंसां न दीखते हैं,
हैराँ हूँ ये नज़रिया, उनमें कहाँ से आया,

ग़र दर्द में हों पंडित, कोई बात न हो उनकी,
बस ज़िक्र हो उन्हीं का, फ़रमाँ है उनका आया,

वो बात करें उसकी, खोया अतीत में जो,
अब योग्यता से ज़्यादा, पाते, न नज़र आया,

मज़लूम, दबा-कुचला, मुफ़लिस,कोई भी वंचित,
बिन देखे जात मैंने, गले है उसे लगाया,

तुम बातें अब भी करते, हो बांटने की केवल,
मैं जोड़ने की नीयत, हूँ लेके यहाँ आया ,

नफ़रत ये पंडितों से, कैसी है, किसलिये है,
पंडित है कौन शायद, तुमको समझ न आया,

रौशन दिमाग़ हो ग़र, दिल पाक़, नेक-नीयत,
हो इल्म का पुजारी , पंडित वही कहाया,

मैं फ़ख्र से कहता हूँ, पंडित हूँ, हूँ मैं पंडित,
तुम जो हो, मैंने तुममें , पंडित नहीं है पाया,

कश्मीरी पंडितों में, इंसान भी तुम देखो,
“संजीव” बात इतनी, है समझाने तुम्हें आया ..........संजीव मिश्रा