सोमवार, 20 जनवरी 2014

हुशियार हैं....

हो गयी है ख़ता, हम ख़तावार है,
आपकी माफ़ियों के तलबगार हैं,

अब भी नादान हैं, कब सयाने हुए,
अब भी बचकाने से, अपने मेयार हैं,

आपको दोस्त अपना, समझ बैठे हम,
दें सज़ा, आप अब जो भी, तैयार हैं,

की ख़ता, हम मुख़ातिब, हुए आपसे,
न हमें इल्म था, हमसे बेज़ार हैं,

फ़िर ये नादानियाँ, अब न दोहराएंगे,
आज से हम भी “संजीव” हुशियार हैं.... संजीव मिश्रा

कन्या पूजन


है काली-कट में, कालिख़, दिल्ली की, डाली गयी,
फ़िर इक, मासूम दोशीजा, मिटा डाली गयी,

ये कैसे लोग हैं, इंसां हैं, या कुछ और हैं,
कली नाज़ुक, मसल दो बार वो डाली गयी,

हदें हैवानियत की भी यहाँ तोड़ी गयीं,
वो अबला लूट कर, फ़िर है जला डाली गयी,

हवस है, भूख तन की है ये, या फ़िर और कुछ,
है इनमें रूह किस शैतान की डाली गयी,

कहेगा कौन, हम प्राचीनतम हैं सभ्यता,
यहीं थी कन्या पूजन की, प्रथा डाली गयी,

इन्द्रिय-संयम की शिक्षा, मूल शिक्षा थी,
धरम की नींव थी, ब्रह्मचर्य पर डाली गयी,

अब शर्म का ये लफ्ज़ छोटा है बहुत,
है भारत माँ की बेटी, लूट फ़िर डाली गयी,

व्यवस्था ये, ये सत्ता और शासन अब पलट डालो,
जहां “संजीव”, कुद्रष्टि नारी पर डाली गयी....... संजीव मिश्रा

नव वर्ष शुभ............


मैं भी था चाहता कहना, हो शुभ ये, वर्ष नव तुमको,
मगर मजबूरी है कुछ, जो मुझे कहने नहीं देती,

करी कोशिश भी कुछ मैंने, के होऊँ जश्न में शामिल,
मगर परि-स्थिति इस देश की, होने नहीं देती,

मुझे जब याद आता है, क़हर सोलह दिसम्बर का,
शरम हंसने न दे मुझको, घृणा रोने नहीं देती,

मैं हूँ उस निर्भया के, देश में रहता जहां, आयु
किसी शैतान को, मुल्ज़िम बना रहने नहीं देती,

मुझे लगता है मैं, इक पाप के रौरव में रहता हूँ,
जहां इक माँ ही, पैदा बेटियाँ होने नहीं देती,

यहाँ सत्ता असत की है, है ये बस्ती हैवानी,
जो बिना गंगा किये मैली यहाँ, बहने नहीं देती,

मैं किस मुंह से भला कह दूं, मुबारक़ साल हो तुमको,
जहा व्य-वस्था लड़की को जवां, होने नहीं देती,

थे जब “संजीव”; कुंआरे, तो शब् भर जश्न रहता था,
फ़िकर अब बेटियों के बाप को, सोने नहीं देती,

मैं फिर हूँ माँगता माफ़ी, मुझे मूआफ़ करना तुम,
मेरी ग़ैरत , मुझे नव वर्ष शुभ कहने नहीं देती................. संजीव मिश्रा

सिरफ पीना पिलाना है......................

नया इस दुनिया में क्या है, सभी कुछ तो पुराना है,
के फिर से ढोल ग़ैरों का, यहाँ मिल कर बजाना है,

समझते हैं बखूबी हम, बहुत देखे तमाशे ये ,
इकट्ठे शाम को होकर, सिरफ पीना पिलाना है,

पटाखे फोड़ने हैं और, मिल करना है हो- हल्ला,
नये इस साल का क़िस्सा, तो केवल इक बहाना है,

अगर मैं पूंछ लूं इनसे , ये संवत कौन सा है तो,
जवाब इन पर नहीं होगा, यही सच सोलह आना है,

खबर घर की नहीं इनको, चलें ये साथ दुनिया के,
मेरे हिन्दोस्तां में आया ये, कैसा ज़माना है,

है माफ़ी चाहता “संजीव”, बातें करता ऎसी है,
मगर ये मुल्क है सोया, मुझे इसको जगाना है..... संजीव मिश्रा

कहीं और चलें...............

तारीफ़ करेंगे तस्वीरों की अब न हम,
नाराज़ करेंगे न तकदीरों को अब हम,

हम समझे वो तारीफ़ सराहेंगे अपनी,
था इल्म नहीं, मुलजिम माने जायेंगे हम,

बस देखेंगे चुप-चाप, सराहेंगे मन-मन,
ज़ाहिर अपने जज़्बात करेंगे, अब न हम,

कब तारीफ़ों में हमने नाम लिया उनका,
किस बात के दोषी ठहराए जाते हैं हम,

जो होगा मन, हम ख़ुद ही लिख कर पढ़ लेंगे,
कुछ और किसी से बात करेंगे अब न हम,

इन्सान बदलते देखे , कोई ग़म न था,
तस्वीरें बदली देख, परेशां हैं कुछ हम,

ये बात सताये मुझको के, मैं कारण हूँ.
वरना, परवाह किसी की भी करते न हम,

“संजीव” क़दर न जहाँ मिले जज़्बातों को,
वो जगह छोड़, कहीं और चलें, आओ अब हम...... संजीव मिश्रा