सोमवार, 20 जनवरी 2014

कहीं और चलें...............

तारीफ़ करेंगे तस्वीरों की अब न हम,
नाराज़ करेंगे न तकदीरों को अब हम,

हम समझे वो तारीफ़ सराहेंगे अपनी,
था इल्म नहीं, मुलजिम माने जायेंगे हम,

बस देखेंगे चुप-चाप, सराहेंगे मन-मन,
ज़ाहिर अपने जज़्बात करेंगे, अब न हम,

कब तारीफ़ों में हमने नाम लिया उनका,
किस बात के दोषी ठहराए जाते हैं हम,

जो होगा मन, हम ख़ुद ही लिख कर पढ़ लेंगे,
कुछ और किसी से बात करेंगे अब न हम,

इन्सान बदलते देखे , कोई ग़म न था,
तस्वीरें बदली देख, परेशां हैं कुछ हम,

ये बात सताये मुझको के, मैं कारण हूँ.
वरना, परवाह किसी की भी करते न हम,

“संजीव” क़दर न जहाँ मिले जज़्बातों को,
वो जगह छोड़, कहीं और चलें, आओ अब हम...... संजीव मिश्रा

आराम न मिला............

इक प्रणाम भेजा था उन्हें, परिणाम न मिला,
इतना हसीं कोई अब तलक, ईनाम न मिला,

हमको गुमान था के हम हैं, ख़ास चीज़ कुछ,
वो कर गये साबित, के हमसा आम न मिला,

पर ठीक है, वो हुस्न वाले हैं, वो मालिक हैं,
हमको भी इश्क़ के सिवा, कोई काम न मिला,

वो जानते हैं हमने, उनको, दिया है दिल,
उनको भी ऐसा कोई, अहतराम न मिला,

वो ग़ैर के आगोश में, सोये हैं चैन से,
ये सोच कर शब् भर मुझे आराम न मिला,

“संजीव” ये बातें तेरी, बस जानता तू ही,
तुझ सा कोई दिलफेंक या, गुलफ़ाम न मिला ........ संजीव मिश्रा

ज़िंदगी मुश्किल है..........

निर्धन की सर्दीयों सा कुछ जीवन रहा,
तन, सुविधा की पाये रजाई, बिन रहा,

संपत्ति की न, तापने को आंच थी,
सुख की सुनहरी धूप में, न मन रहा,

ठिठुरन अभावों की, सताती ही रही,
समस्याओं के कोहरे में, छाया दिन रहा,

दुर्भाग्य की खिड़की, खुली, बंद न हुई,
हवा असफलता की से, काँपता हर छन रहा,

क्षमता उठाने की थी, बस इक लेखनी,
दायित्व कन्धों पर सदा, इक मन रहा,

ज़रुरत की बरफ गिरती, जमाती ही रही,
कम, गर्म कपड़ों सा, हमेशा धन रहा,

चादर है बस इक योग्यता-विश्वास की,
न खूं जम पाया, कुछ, अपनों का अपनापन रहा,

भले ही ज़िंदगी मुश्किल है पर “संजीव” मैं,
झुका हूँ न झुकूँगा, है ये मेरा प्रन रहा........... संजीव मिश्रा

कनक छरी सी लागो............


धवल दन्त पंक्ति शोभित है, रक्तिम होठों बीच,
ये निश्छल मुस्कान मिटाती, है मन की सब कीच,

चुनर बैंगनी, नीला कुरता, केश बायें काँधे पर,
फ़िर-फ़िर ये तस्वीर मुझे, ले आये तुम तक खींच,

लम्बी-पतली-सुतवां काया , कनक छरी सी लागो,
इक कल्पवृक्ष तुम, जिसे गया हो, अमृत द्वारा सींच,

तुम्हें देख जग सुन्दर लगता, कहीं न कोई द्वैत,
भेद-भाव मिट चुके सभी अब, कोई ऊंच न नीच,

कुछ ऐसा मायावी है, आकर्षण पाया तुमने,
“संजीव” तुम्हें पहचाने लाखों में भी आँखें मींच ......संजीव मिश्रा

बात इश्क़ की हो..........


उन्होंने कहा है नफ़रत, छोड़ो, तो चलो छोड़ें,
दिल नाज़नीनों का हम, अब कैसे भला तोड़ें,

उन हुस्न के मालिक की, ये इल्तिज़ा, हुकुम है,
ये आइना रिश्तों का, अब टूटा, चलो जोड़ें,

हो गुफ़्तगू जो उनसे , बस वो ही तो ग़ज़ल है,
अब ग़ज़ल की कोशिश हो, अब रुख कलम का मोड़ें,

“संजीव” हो जहां पर, वहाँ बात इश्क़ की हो,
दुनियावी मसाइल पर, हम सर क्यों भला फोड़ें.....संजीव मिश्रा