होकर अलग तुमसे हुए सबसे अमीर हम ,
सारे जहाँ का दर्द हमारे ही पास है ।
दुनियाँ में चश्मे-नम की कोई कमी नही ,
जो आँख में है मेरी वो अश्क ख़ास है ।
इंसान है वालिद सा , दोशीज़ा ज़िन्दगी है ,
नसीब के नौशे की सबको तलाश है ।
ऐ ज़िन्दगी आ हंस लें एक-दूजे पे ही हम दोनों ,
माहौल अब बदल कुछ तू क्यों उदास है ।
हासिल नहीं होना है कुछ आसमां से तुझको ,
वो बना नहीं सितारा तुझे जिसकी आस है ।
'संजीव' पिए बैठे हम नाक़ामी के ज़हर को ,
जानें न होश क्या है और क्या हवास है ।
तक़दीर ने हमें कुछ ज़्यादा न दिया इससे ,
बस पेट में है रोटी और तन पर लिबास है ।
जीवन की पीड़ाओं को शब्दों में उंडेलने का प्रयास करता, प्रेम-मिलन,विरह,दुख, भाग्य आदि विभिन्न भावनाओं को शब्द देता एक कविता-गीत-ग़ज़ल शायरी का ब्लॉग। ज़िन्दगी की सज़ा काटने में आयीं दुश्वारियों को शायरी की ज़ुबान देने की एक कोशिश।
शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
जो आँख में है मेरी वो अश्क ख़ास है.....
मंगलवार, 6 जनवरी 2009
तुम्हीं आओ के तुम ही जानो ये जादू चलाना.....१
चाहता हूँ मैं भी अब कुछ मुस्कुराना ,
तुम्हीं आओ के तुम ही जानो ये जादू चलाना ।
तुम्हारे रूप में सिद्धी , हैं तंतर सब अदाओं में ,
बखूबी जानो तुम मृत भावनाओं को जिलाना ।
तुम्हारे पास सब टोने ,तुम्हारे पास सब मंतर ,
तुम्हीं जानो के कैसे रोते को रोना भुलाना ।
लबों को करके तिरछा वो तुम्हारा मुंह बनाना ,
मुझे है याद पल भर में मेरा गुस्सा भुलाना ।
मुझे है याद वो तेरा झटकना गीले बालों को ,
भिगोने को मुझे पूरा वो केशों को झुलाना ।
ये जो कुछ पक्तियां ‘संजीव’ लिख बैठा हो जज्बाती ,
न देखो इनपे तुम हंसना , न तुम गुस्सा दिलाना ।
न मैं ‘ग़ालिब’ , न मैं ‘साहिर’ , न ही ‘दुष्यंत’ हूँ मैं ,
बड़ी मुश्किल से सीखा है ये तुक से तुक मिलाना ।
तुम्हीं आओ के तुम ही जानो ये जादू चलाना ।
तुम्हारे रूप में सिद्धी , हैं तंतर सब अदाओं में ,
बखूबी जानो तुम मृत भावनाओं को जिलाना ।
तुम्हारे पास सब टोने ,तुम्हारे पास सब मंतर ,
तुम्हीं जानो के कैसे रोते को रोना भुलाना ।
लबों को करके तिरछा वो तुम्हारा मुंह बनाना ,
मुझे है याद पल भर में मेरा गुस्सा भुलाना ।
मुझे है याद वो तेरा झटकना गीले बालों को ,
भिगोने को मुझे पूरा वो केशों को झुलाना ।
ये जो कुछ पक्तियां ‘संजीव’ लिख बैठा हो जज्बाती ,
न देखो इनपे तुम हंसना , न तुम गुस्सा दिलाना ।
न मैं ‘ग़ालिब’ , न मैं ‘साहिर’ , न ही ‘दुष्यंत’ हूँ मैं ,
बड़ी मुश्किल से सीखा है ये तुक से तुक मिलाना ।
शनिवार, 3 जनवरी 2009
ऐसे नसीब कब हैं ........
हालात जो पहले थे ,
हालात वही अब हैं ,
कुछ चैन की साँसें लें ,
ऐसे नसीब कब हैं ।
इक हम ही हैं अकेले ,
गमज़दां , परेशां ,
बाक़ी तो इस जहाँ में ,
शादो-आबाद सब हैं ।
हम ढूंढ नहीं पाये ,
खुश होने का बहाना ,
रहने को उदास लेकिन ,
अनगिन यहाँ सबब हैं ।
होठों पे जिनके गाली ,
हाथों में जिनके खंज़र ,
ऐसे ही लोग कुछ अब ,
बन बैठे मेरे रब हैं ।
इस दुनिया में नहीं है ,
कहीं भी मेरा गुज़ारा ,
कुछ हम भी हैं अनोखे ,
कुछ लोग भी अजब हैं ।
हालात वही अब हैं ,
कुछ चैन की साँसें लें ,
ऐसे नसीब कब हैं ।
इक हम ही हैं अकेले ,
गमज़दां , परेशां ,
बाक़ी तो इस जहाँ में ,
शादो-आबाद सब हैं ।
हम ढूंढ नहीं पाये ,
खुश होने का बहाना ,
रहने को उदास लेकिन ,
अनगिन यहाँ सबब हैं ।
होठों पे जिनके गाली ,
हाथों में जिनके खंज़र ,
ऐसे ही लोग कुछ अब ,
बन बैठे मेरे रब हैं ।
इस दुनिया में नहीं है ,
कहीं भी मेरा गुज़ारा ,
कुछ हम भी हैं अनोखे ,
कुछ लोग भी अजब हैं ।
शुक्रवार, 2 जनवरी 2009
हो गयी कम सज़ा और इक साल की....................
सबको ख़ुश देखा हमने नए साल पर ,
देखा सबको ही हँसते -हंसाते हुए ,
साल सारे हमारे तो बीते मगर ,
इक सज़ा जैसे रोते रुलाते हुए ।
साल है ये नया , हो मुबारक तुम्हें ,
न मुबारक कोई साल मुझको हुआ ,
न जिए कोई दुनिया में मेरी तरह ,
इस नए साल पर है मेरी ये दुआ ।
जश्न की रात वो तो सदा की तरह ,
अपनी तो बीती आंसू छिपाते हुए ।
हर नए साल ने है बहुत कुछ दिया ,
दीं नयी उलझनें , मुश्किलें दीं नयी ,
ग़म नए कुछ दिए , कुछ नयी जिल्लतें ,
इम्तहाँ और नाक़ामियां कुछ नयी ,
दिल में डर है छिपा , मैं हूँ सहमा हुआ ,
अब ये है साथ लाया क्या आते हुए ।
पर है थोडी खुशी भी , गया साल इक ,
हो गयी कम सज़ा और इक साल की ,
जैसे अब तक कटे , ये भी कट जायेगा ,
क्यों हो परवाह अब और इक साल की ,
आप जी भर जियें इस नए साल में ,
बीतूं ना मैं भी इसको बिताते हुए ।
देखा सबको ही हँसते -हंसाते हुए ,
साल सारे हमारे तो बीते मगर ,
इक सज़ा जैसे रोते रुलाते हुए ।
साल है ये नया , हो मुबारक तुम्हें ,
न मुबारक कोई साल मुझको हुआ ,
न जिए कोई दुनिया में मेरी तरह ,
इस नए साल पर है मेरी ये दुआ ।
जश्न की रात वो तो सदा की तरह ,
अपनी तो बीती आंसू छिपाते हुए ।
हर नए साल ने है बहुत कुछ दिया ,
दीं नयी उलझनें , मुश्किलें दीं नयी ,
ग़म नए कुछ दिए , कुछ नयी जिल्लतें ,
इम्तहाँ और नाक़ामियां कुछ नयी ,
दिल में डर है छिपा , मैं हूँ सहमा हुआ ,
अब ये है साथ लाया क्या आते हुए ।
पर है थोडी खुशी भी , गया साल इक ,
हो गयी कम सज़ा और इक साल की ,
जैसे अब तक कटे , ये भी कट जायेगा ,
क्यों हो परवाह अब और इक साल की ,
आप जी भर जियें इस नए साल में ,
बीतूं ना मैं भी इसको बिताते हुए ।
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
कैदी सा जिए जाते हैं ....... २
मैं हूँ इंसान इक नाचीज़ और अदना सा ,
मैं हूँ इक शख्सियत कमज़ोर और कमतर सी ,
एक तस्वीर हूँ बेरंग , एक गुल बे-बू ,
जो भी है कुफ्र खुदा का है , सहे जाते हैं ।
कोई भी फ़न नहीं मुझमें जिसे मैं बेच सकूं ,
तमाम दुनिया में मेरा तो कुछ भी मोल नहीं ,
नहीं है मेल ज़रा सा मेरा और दुनिया का ,
एक बेमेल सी संगत ये किए जाते हैं ।
हमसे उम्मीद लोग करते हैं शाद रहने की ,
पूछते हैं वज़ह हमसे उदास रहने की ,
वो हैं मासूम और नादाँ उन्हें ख़बर है क्या ,
जाम नाकामी के ऐसे ही पिए जाते हैं ।
रोज़ ज़िल्लत के यहाँ घूँट पीने पड़ते हैं ,
रोज़ सौ बार यहाँ किश्तों में मरना पड़ता है ,
रोज़ एक हिस्सा खुदी का फ़ना हो जाता है ,
रोज़ इस ज़ीस्त का हम सोग किए जाते हैं ।
रोयां - रोयां ये पूछता है तू क्यों ज़िंदा है ,
रगों में बहता हुआ लोहू तलक शर्मिंदा है ,
लगती है दिल की हरेक धड़कन भी अब तो गाली सी ,
बद - दुआ जैसी हरेक साँस लिए जाते हैं ।
मैं हूँ इक शख्सियत कमज़ोर और कमतर सी ,
एक तस्वीर हूँ बेरंग , एक गुल बे-बू ,
जो भी है कुफ्र खुदा का है , सहे जाते हैं ।
कोई भी फ़न नहीं मुझमें जिसे मैं बेच सकूं ,
तमाम दुनिया में मेरा तो कुछ भी मोल नहीं ,
नहीं है मेल ज़रा सा मेरा और दुनिया का ,
एक बेमेल सी संगत ये किए जाते हैं ।
हमसे उम्मीद लोग करते हैं शाद रहने की ,
पूछते हैं वज़ह हमसे उदास रहने की ,
वो हैं मासूम और नादाँ उन्हें ख़बर है क्या ,
जाम नाकामी के ऐसे ही पिए जाते हैं ।
रोज़ ज़िल्लत के यहाँ घूँट पीने पड़ते हैं ,
रोज़ सौ बार यहाँ किश्तों में मरना पड़ता है ,
रोज़ एक हिस्सा खुदी का फ़ना हो जाता है ,
रोज़ इस ज़ीस्त का हम सोग किए जाते हैं ।
रोयां - रोयां ये पूछता है तू क्यों ज़िंदा है ,
रगों में बहता हुआ लोहू तलक शर्मिंदा है ,
लगती है दिल की हरेक धड़कन भी अब तो गाली सी ,
बद - दुआ जैसी हरेक साँस लिए जाते हैं ।
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