शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

ज़िन्दगी है प्याला ..............भाग ३

प्याले बनाए बिन - गिन ,
मय नाप कर बनायी ,
कहीं इतनी , कि छलक जाए ,
कहीं गंध भी न आयी ,

भरे ज़्यादतरमें आंसू ,
कुछ में ही है शराब ।



प्याला न तोड़ सकते ,
उम्मीद अभी बाक़ी है ,
इक दिन तो पिलाएगा वो ,
आख़िर को वो साकी है ,

प्याला दिया तो उसका -
है फ़र्ज़ , दे शराब ।


पर हो भरा या खाली ,
प्याला तो टूटना है ,
साकी को एक दिन तो ,
सब से ही रूठना है ,

उस दिन न कुछ बचेगा ,
ना प्याला ना शराब ।


तरसा हूँ मैं इतना , के
अब प्यास खो गयी है ,
यूँ ही तड़पने की अब
आदत सी हो गयी है ,

सब लगता है मुझको झूठा ,
क्या प्याला क्या शराब ।


ज़िन्दगी है प्याला ,
तक़दीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो
उतना ही क़ामयाब ।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें