शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

सर नवाता है......



हमेशा आईना भी कब भला सच बोल पाता  है,
शमा रौशन है कितनी, ये तो, परवाना बताता है,

वो हैं ये पूछते के  हम भी क्या कुछ ख़ूबसूरत हैं,
मैं कहता हूँ मेरा अन्दाज़, तुमको क्या जताता है,

तुम्हें मालूम क्या तुम क्या हो,ज़ालिम,हुस्न,क़ातिल हो,
तबस्सुम से तुम्हारे ही तो सब ये नूर आता है,

न जाने हुस्न वाले हमको कितने, रोज़ मिलते हैं,
है दिल ये ढूंढता कुछ ख़ास, कब सब पर ये आता है,

ये है बस इश्क जो माशूक़ को, माशूक़  करता है,
किसी लड़की को लैला भी, कोई मजनूँ बनाता है,

है ग़र तुमसा नहीं कोई, तो हमसे भी बहुत कम हैं,
ज़रा ढूंढो कोई जाकर, ग़ज़ल तुम पर जो गाता है,

कोई पत्थर भी हो सुन्दर, तो फ़िर, पत्थर नहीं रहता,,
कोई "संजीव" आकर रोज़, उसको सर नवाता है। .....संजीव मिश्रा

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

गुफ़्तगू तो की………



किसी ने तो चलो बोला, मुबारक़-दिन गुलाबों का,
दिया है गुड़ न बनिए ने, मगर है बात गुड़ सी की,

मेहरबानी है उनकी ये, है ये अहसान, इक उनका,
कि हमको याद रक्खा है,अता हमको ये इज्ज़त की,

हमें वरना यहाँ पर पूछता है कौन, क्या हैं हम,
उन्होंने कुछ तो समझा है, इनायत जो ये हम पर की,

दुआएं हैं मेरी उनको, रहें वो ख़ुश, कहीं भी हों,
यही "संजीव" को काफ़ी, किसी ने गुफ़्तगू तो की.........संजीव मिश्रा

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

क़ूवत दे मुझे.... (माँ सरस्वती से एक प्रार्थना .......)



ऐ इल्म की देवी, ज़हानत दे मुझे,
जहां रौशन ये कर पाऊँ, ये क़ूवत दे मुझे,

बिखेरूं नूर मैं हर सिम्त, बस इतिहाद का,
रहूँ इतिहाम से मैं दूर, क़ूवत दे मुझे,

भरा हो दिल मेरा बस, इश्क़ से, इश्फाक़ से,
रक़ीबों को भी अपनाऊँ, ये क़ूवत दे मुझे,

दे क़ुव्वत इक्तिज़ा से ज़्याद, हासिल मैं करूँ,
रखूँ इफ़रात में इफ्फ़त, ये क़ूवत दे मुझे,

न मुझ पर हाय हो कोई, दुआ सबको मैं दूं,
बने “संजीव” ज़ाकिर-पाक़, क़ूवत दे मुझे......संजीव मिश्रा

इल्म=ज्ञान, ज़हानत=बुद्धिमानी, क़ूवत=सामर्थ्य, हर सिम्त=हर ओर(चतुर्दिक), इत्तिहाद=एकता, मित्रता, इत्तिहाम= दोष, इश्फाक़=दया, रक़ीबों=प्रतिद्वंदी, इक़्तिज़ा= आवश्यकता, इफ़रात=बहुतायत, इफ्फ़त=पवित्रता, शुद्धता,  ज़ाकिर=कृतज्ञ, पाक़=पवित्र

सोमवार, 27 जनवरी 2014

तेरा “संजीव” मैं होता...........

तेरा गुस्सा तेरी मुस्कान से भी ज़्यादा दिलक़श है,
जो पहले जानता तो रोज़ ही नाराज़ करता मैं,

तू मेरी है नहीं तक़दीर में, ये जानता हूँ मैं,
मगर मेरी अगर होती तो ख़ुद पर नाज़ करता मैं,

तेरे दुनिया में आने से, भला पहले मैं आया क्यूं,
तेरे ही साथ अपनी जीस्त का आगाज़ करता मैं,

तू  मुस्तक़बिल मेरा होती , तेरा “संजीव” मैं होता,
फ़रिशतों की तरह ज़न्नत तलक परवाज़ करता मैं...... “संजीव” मिश्रा

सोमवार, 20 जनवरी 2014

उन्हें बता दो...................



ऐ नींद के फरिश्तों, जाकर उन्हें सुला दो,
मीठी सी नींद आये ,लोरी कोई सुना दो,

सब हूरें जन्नतों की, पंखा झुलाएं जाकर,
परियों की पालकी में झूला उन्हें झुला दो,

जब  नाज़नीं-हसीं वो, आगोशे-नींद में हो,
उनको पसंद हो जो, वो ख्वाब तुम दिखा दो,

मेरी ज़िन्दगी की सुबहें, जीवन की मेरी शामें,
उन पर ही हैं निछावर , जाकर उन्हें बता दो,

वो क्या हैं, वो क्या जानें, नादां हैं, बेख़बर हैं,
वो तक़दीर के मालिक हैं, अहसास ये करा दो,

"
संजीव" के जज़्बों को वो जान-समझ पायें,
कोई ऐसा हुनर हो तो , जाओ उन्हें सिखा दो.....संजीव मिश्रा