सोमवार, 20 जनवरी 2014

मिलने जाना है...



आज फिर उनसे मिलने जाना है,
जिनको कहता  मेरा ज़माना है,

यूं वो है ग़ैर की अमानत पर,
उसने अपना मुझी को माना है,

वक़्त देता नहीं इजाज़त पर,
हुक्म उनका है, सो बजाना है,

कल कहा उनसे, भूल जाओ मुझे,
आज शर्मिंदा हो दिखाना है,

रो-रो सूरत बिगाड़ ली होगी,
फिर से जाकर मुझे मनाना है,

आज फिर ज़ब्त मुझको करना है,
मैं हूँ अब ग़ैर ये दिखाना है,

माना माज़ी ये ख़ूबसूरत है,
तुमको “संजीव” बढ़ते जाना है..... संजीव मिश्रा

शब्बो



शब्बो.....

पुराने उस मौहल्ले की, वो गलियाँ याद आती हैं,
जहां तुम रोज़ छुप-छुप हमसे आँखें चार करते थे,

बहाने से कभी आकर मुझे बस देखने ख़ातिर,
मकां-मालिक की लड़की से यूं ही तकरार करते थे,

मैं जब दफ़्तर को जाता, अपनी ड्यूटी पर, सुबह घर से,
खड़े दरवाज़े हो आदाब-नमश्कार  करते थे,

इशारों में तुम्हें कई बार, समझाया था, डांटा था,
मगर तुम हरकतें वो ही, वही, हर बार करते थे,

तुम अपनी चिट्ठियां ले भाई छोटा भेज देतीं थीं,
लिखें अब क्या जवाबों में, यही सवाल करते थे,

वो जब चुपके से तुमने रास्ते में ख़त वो फेंका था,
किसी ने देखा था वो सब, सभी ये बात करते थे,

जब उस सुनसान दोपहरी में खटका मेरा दरवाज़ा,
तुम्हें पाकर खड़ा तक़दीर पे हम नाज़ करते थे,

हुये इक दूजे के हम तुम, मगर मज़हब न मिल पाये,
मुहल्ले के सियासी लोग सब ऐतराज़ करते थे,

हुआ वो ही जो होना था, मुझे छीना गया तुमसे,
मुझे है याद सब, तुम किस तरह फ़रियाद करते थे,

वो जब तुमको सुनायी थी ग़ज़ल तुम पर लिखी मैंने,
के इक-इक शेर पर दे बोसा तुम इरशाद करते थे,

वो दिन भी दिन थे क्या, फिर लौटकर, आयेंगे दिन न वो,
के जब “संजीव” बाँहें “शब्बो” की आबाद करते थे......  संजीव मिश्रा

शनिवार, 18 जनवरी 2014

मंगल यान

अरबों-खरबों खर्च हुए, मंगल पर यान गया,
जनता की आवश्यकता पर, किसका ध्यान गया,

इसी देश में गर्भवती महिलाएं ईंटें ढोतीं ,
दूर ग्रहों की खोज-ख़बर में, है विज्ञान गया,

मूलभूत सुविधाओं तक को, अब भी लोग तरसते,
अन्तरिक्ष में जा, झूठा, पाया सम्मान गया,

कौन कहे ये चक्रवर्ती, सम्राटों की धरती है,
बैरी घुस कर, सर काट सिपाही, निज स्थान गया,

धरे रह गये अग्नि-प्रथ्वी, अस्त्र नाभिकीय सारे,
धैर्य आवरण कायरता का, जग पहचान गया,

ध्यान चन्द को रत्न अभी तक समझ सका न भारत,
बल्ले-गेंद का इक नवयुवक,कहा महान गया,

देश चलातीं महिलायें, फिर भी क्यूं चलती बस में,
कहे कोई क्योँ ललनाओं का लूटा मान गया,

था जगद्गुरु और स्वर्ण चिड़ी कहलाता देश कभी ये,
आज असभ्य और निर्धन है, सारा धन-ज्ञान गया,

कभी देव भूमि था ये, आर्यावर्त-भरत खंड,
आज यहाँ पाया जाता घर-घर शैतान गया,

भरा पेट, हर बदन ढंका और इक छत हर सर पे,
“संजीव” अधूरा रह सपना और ये अरमान गया.........संजीव मिश्रा

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

धीरे-धीरे.......



सब रूठ रहे हैं दोस्त मेरे धीरे-धीरे,
सब झूठे रिश्ते टूट रहे धीरे-धीरे,

था एक मुलम्मा चढ़ा हुआ हर सूरत पर,
अब दिखते असली चेहरे हैं धीरे-धीरे,

अपनों की गिनती घटी जाये जीवन जैसी,
उम्र परायों सी बढ़ती धीरे-धीरे,

जो भी हंसकर के मिला, ग़ैर फिर रहा वो  कब,
ना-दानी जायेगी मेरी धीरे-धीरे,

कुछ क़र्ज़ महफ़िलों का मुझ पर चढ़ बैठा था,
तन्हाई चुकाएगी सब अब, धीरे-धीरे,

सब मौसम के थे फूल, खिले थे कुछ दिन को,
वीरानी पड़ी दिखायी  है अब  धीरे-धीरे,

हर चीज़ वक़्त के साथ बदल ही जाती है,
तुम समझोगे “संजीव”, मगर धीरे-धीरे.... संजीव मिश्रा

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

कैसे लगते हैं ......

ये सीप में काले मोती जैसे नयन तेरे,
क्यों मुझको मूक निमंत्रण देते लगते हैं,

ये तृषित अधर-रसभरे-कुंआरे-तुम-हारे,
हम दमित मदन पर खोये नियंत्रण लगते हैं,

ये घने केश तेरे , काजल से भी काले,
इस प्रणय-तृषित को प्रेम पयोधर लगते हैं,

तेरे आलिंगन में लोक सभी स्वः-जनः-तपः,
ये लौकिक वैभव क्षुद्र खिलौने लगते हैं,

अब कार्यालय में कहाँ ये मन लग पाता है,
सब कहते हैं, हम खोये-खोये लगते हैं,

जब चित्र ही उनका ये  इतना मनमोहक है,
 मैं सोचूँ के सचमुच वो कैसे लगते हैं,

बस तेरे रूप की उपमाएं सोचूँ हर पल,
अब तो हम भी कुछ, कवियों जैसे लगते हैं,

तुम साध्य, तुम्हीं हो लक्ष्य, तुम्हीं सिद्धि, तुम साधन,
इस जनम में हम, तुम-हारे साधक लगते हैं,

प्रिये, तुम क्या हो, तुम्हें बताया मैंने तुमको, अब,
तुम कहो तुम्हें “संजीव” जी कैसे लगते हैं    .........संजीव मिश्रा