बुधवार, 6 नवंबर 2013

अब रात हो चली है......



वो   सो  गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है,



अपना है क्या, हैं हम तो, इक अनसुनी कहानी,

इक अनकहा सा क़िस्सा, इक मौज बिन रवानी,

इक फूल अधखिला सा, इक टूटा सिलसिला सा,

बचपन  यतीम का, या, इक विधवा की जवानी,



अब    ज़िन्दगी   ग़मों की बारात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



अब   तो  हयात है बस, क़ातिल  के हुक्म जैसी,

बिन बहर की  ग़ज़ल सी, बिन वज्न नज़्म जैसी,

हैं   आह पर   भी   पहरे,  फ़रियाद पे पाबन्दी,

मजलूम पे,   बेबस  पे,   जाबर के ज़ुल्म जैसी,



“संजीव”,   उलझनों   की   अफ़रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



वो   सो     गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी   सी  बात हो चली है.

सोमवार, 4 नवंबर 2013

तुम गीता हो.....

तुम श्रुति, स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.

तुम अमृत घट दुर्लभ-अलभ्य ,मैं सर्व-सुलभ नर साधारण,
तुम गायत्री का गान मैं बस इक ग्राम्य-गीत सा उच्चारण,
मैं माया-मोहित प्राणी सा  तुम भव निधि के लगते तारण,
मैं कृष्ण पक्ष का चन्द्र मात्र,  तुम हो सूरज उत्तर आयण ,

मैं क्यों न गीत तुम्हारे गाऊँ, प्रीत करूँ न किस कारण,
तुम ही मेरा अवलंबन हो तुम ही मेरी मन प्रीता हो...........

मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............

जाने कितने जन्मों जन्मों बस बाट  तुम्हारी जोही थी,
जानें कितने ही दिवस-निशा ये श्वास यूंही बस ढोही थी,
जब तुम्हें था पाया तभी मुझे ये जगती थोड़ी सोही थी,
जो तुमसे कभी न कह पाया वो बात यही बस तो ही थी,

कितने  दिन तेरे बिना कटे, नियति कितनी निर्मोही थी,
संजीवको इस  दुर्गम पथ में तुम ही तो एक सुभीता हो......

मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............

तुम श्रुति, स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो........संजीव मिश्रा

शनिवार, 2 नवंबर 2013

कभी ऎसी दीवाली आये.......



कभी ऐसी दीवाली आये.
बाहर मिटें अँधेरे,भीतर भी उजियारा छाये,
कभी ऐसी दीवाली आये........

कहीं अभाव या निर्धनता का लेश रहे ना बाक़ी,
सबकी प्यासी कामनाओं को, हाज़िर हो इक साक़ी,
कहीं किसी मुफ़लिस की बेटी न,  बिन ब्याही रह जाये ,
कभी ऐसी दीवाली आये......

मेरे देश से जरासंध और दु:शासन मिट जायें,
कभी-कहीं-कोई बालाएं न जबरन नोची जायें,
बेटी पैदा हो तो न फ़िर बाप का दिल घबराये,
कभी ऎसी दीवाली आये....

मैं भी रहूँ प्रसन्न , पड़ोसी भी आनन्द मनाये,
हर कोई अपनी मेहनत का समुचित प्रतिफल पाये,
तेरे घर होकर माँ लक्ष्मी , “संजीव” के घर भी आये,
कभी ऎसी दीवाली आये.......

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

सिर्फ़ कल सा लगता है....



उनका   चेहरा     कँवल     सा   लगता है,
इक      मुक़म्मल    ग़ज़ल  सा   लगता है,

उनके    बारे    में      सोचना    अब तो,
इक     ख़ुदाई     अमल   सा   लगता  है,

दुनिया   है    इक   सवाल     अन सुलझा,
उनका    दामन    ही,    हल  सा लगता है,

याद      में   उनकी     बहा   हर  आंसू,
मुझको गंगा   के      जल    सा लगता है,

ये फ़लक, ये हिमाला    भी,  चाहे टल  जाये,

प्यार    मेरा   अचल   सा      लगता   है,

उनकी      चाहत   में   दिल   हुआ मंदिर,
घर    मेरा     इक     महल  सा लगता है,

तुम    मेरे    उपनिषद    हो,    गीता  हो,
तुमसे    जीवन     सफ़ल    सा   लगता है,

है   ये   “संजीव”  तुम्हारा  ही कई जन्मों से,
तुमको  रिश्ता  ये क्यों, सिर्फ़ कल सा लगता है....

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

रहते हैं “संजीव” छिपे .........

भीतर भीतर जेठ दुपहरी बाहर मौसम सावन का,
तुम क्या जानों इन मुस्कानों के पीछे कितने दर्द छिपे,

यूं तो मैं आवारा भंवरे सा फ़िरता सा दिखता हूँ,
मेरे इन दुर्बल काँधों में  , हैं कितने भारी फ़र्ज़ छिपे,

मैं तुमसे खुलकर मिलता हूँ इसका यह अभिप्राय नहीं,
के भूल गया अपने प्रियतम को, जो अंतस में रहें छिपे,

पीर छिपाये दुनिया भर की हंस के बात तो करते हैं,
तुम क्या जानों कितने अश्कों, के हैं अन्दर क़र्ज़ छिपे,

मैं अपना अवसाद छिपाने को सामजिक बनता हूँ,
वरना बैरागी बनकर मैं हूँ दुनिया से रहा छिपे,

ये जग बस इक खेल मदारी, रोज़ तमाशे, स्वांग नए,
भीतर द्रष्टि, बाहर आँखें, प्रकट है माया , सत्य छिपे,

तुम मुझको इक हाड़-चाम का पुतला सिरफ़ समझते हो,
कुछ अभिशप्त फ़रिश्ते अन्दर रहते हैं “संजीव” छिपे .........संजीव मिश्रा