गुरुवार, 10 सितंबर 2009

दुर्योग


चित्त में अनगिनत अनचाहे विचारों की तरह ,
दुक्ख जीवन में अनियंत्रित हो चले आते हैं ,
सुख हो गया दुर्लभ है समाधी की तरह ,
यत्न करते हैं बहुत ध्यान हम लगाते हैं ।


यम्-नियम ढल गए जीवन में बड़ी सरलता से,
पर सुख के आसन ने कभी स्वीकार न किया हमको ,
ठंडी आहों से हुआ ख़ुद ही अयाम प्राणों का ,
इस तरह उपकृत उदासियों ने कुछ किया हमको ।


विरक्तियाँ कुछ इस तरहा से मेरे काम आयीं ,
प्रती अहार को कुछ श्रम न मुझे करना पडा ,
अ-सफलताओं ने निराशाएं सतत दीं ऐसे ,
धारणा के भी लिए परयास न कुछ करना पडा ।


धारणा निराशा की कुछ इतनी प्रगाढ़ होती गयी,
ध्यान में चिर शोक के कब बदल गयी , पता ही न चला,
क्षिप्त पहले से था, विक्षिप्त हो गया कब मैं,
सम्भलना था कहाँ मुझको ये पता ही न चला।


अब तो लगता है समाधी बची चिर निद्रा की,
सुख का आसन भी तुझे 'संजीव' तभी मिल पायेगा,
ये जो छः अंगों का इक दुर्योग हुआ जीवन भर,
पूरा होगा ये तभी इन दो से जो मिल पायेगा ।

मंगलवार, 10 मार्च 2009

होली है।

रंगों की एक गठरी ,किसने यहाँ खोली है ,
लगता है इस बरस भी, फ़िर आ गयी होली है ।


हर शख्स खिला सा है , हर ज़र्रा है महका सा ,
हर ग़म जला दिया है , हर फ़िक्र ज्यों धो ली है ।

होली नहीं ये तेरी , न रंग ये तेरे हैं ।
कानों में मेरे किसने , फ़िर बात ये बोली है ।

सबकी तरह से मैं भी, क्यों आज ख़ुश नहीं हूँ ,
क्यूँ ख्वामख्वाह मैंने, फ़िर आँख भिगो ली है ।

क्यूँ सोग किए जाता ,हूँ , तक़दीर का मैं अपनी ,
यहाँ बदकिस्मती भी क़िस्मत, की एक ठिठोली है ।

हमने तो है ये पाया , ये जिंदगी सिरिफ़ इक ,
उम्मीद - नाउमीदी, की आँख मिचोली है ।

इस बरस नयी पुडिया ,मजबूरियों के रंग की ,
लोहू में ख्वाहिशों के , हालात ने घोली है ।

मातम सा है इक अन्दर , कुछ हसरतें गयीं मर ,
अरमां सिसक रहे हैं , हर आरज़ू रो ली है ।

कोई संदेस घर से, आया नहीं होली पर ,
लगता है दिल में सबने, इक गैरियत बो ली है ।

यूं मुंह सा चिढाता है, हर इक त्यौहार आकर ,
ज्यूँ ग़म की घुड़चढी है , आशाओं की डोली है ।


'संजीव ' आज़माइश , है ज़ब्त की ये तेरे ,
थी गयी सता, दिवाली , अब आयी ये होली है ।

परिशिष्ट :

पिचकारी दूरियों की , और रंग है विरह का ,
गुलाल सब्र का है , कुछ ऎसी ये होली है ।


रंगीन किया जाना, बेरंग को , है मुमकिन ,
बदरंग जिंदगी में, क्यूँ आए ये होली है ।

मैं राह देखता हूँ , बस ऎसी इक होली की ,
जब झूमकर नशे में ,कह पाऊँ कि, "होली है " ।


माहौल में खुशी के , ये क्या मैं कह गया सब ,
फ़िर भी मुआफ करना , आख़िर को तो होली है ।

नहीं जानता "बहर" क्या ,कहते हैं "रुक्न" किसको ,
इक तड़प थी इस दिल में , लफ़्जों में पिरो ली है ।



शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

परदेस में प्रणय दिवस ........

रुत विरह की चल रही थी , दिन प्रणय का आ गया ,
इम्तहाँ ये ही बचा था , आज ये भी आ गया ।

देखता हूँ आज मैं , इक फूल सबके हाथ में ,
महसूस करता हूँ कोई काँटा गले में आ गया ।

थे कभी इक डाल पर , अब हैं अलग पिंजरों में हम ,
दीद भी मुमकिन नहीं ,ये तक ज़माना आ गया ।

चंद सिक्कों के लिए आ तो गया परदेस मैं ,
पर छोड़ना क्या-क्या पड़ा ,फ़िर याद सब कुछ आ गया ।

तेरे हाल का तनहाई का , अहसास था पूरा मुझे ,
छोड़कर महफ़िल भरी , कमरे में अपने आ गया ।

प्रणय दिवस परदेस में आया है बस कुछ इस तरह ,
जैसे छिड़कने घाव पर कोई नमक है आ गया ।

आज सब हैं घूमते जोड़े से बगलगीर हो ,
बीता ज़माना साथ ले तन्हाइयों में आ गया ।

परदेस था तुम दूर थे ,मैं और क्या करता भला ,
आज बस इक रस्म सी, मैं हूँ निभाकर आ गया ।

यादें तेरी बांहों में भर , तेरा ख़याल चूमकर ,
तेरे नाम का इक फूल अलमारी में रख कर आ गया ।

तुम भी वहाँ इक फूल पर मेरा नाम लिख , होठों से छू ,
जूडे में टांक , आइने में देखना, मैं आ गया ।

'संजीव' जा कह दे उन्हें , के दिल न वो छोटा करें ,

जीवन , प्रणय बन जायेगा , जो देस वापस आ गया ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

तुम न आओगे तो..........


तुम हो रूठे हुए या शरमाये ,
फ़िर दुबारा इधर नहीं आए ,
जब से तुम पर क़लम उठायी है ,
बैठे हो क्या क़सम कोई खाए ?
ऐसा क्या कह दिया भला मैंने ,
चंद अल्फाज़ बस तारीफ़ में ही बोले थे ,
ज़िन्दगी बेरंग थी,ये मेरी,मेरी तरह से ही,
तेरी आमद ने ही कुछ रंग इसमें घोले थे ,
तुम न आओगे तो फ़िर कौन यहाँ लिक्खेगा,
और भला कौन मुहब्बत के तराने गाये ।
भा गयी थी तेरी फितरत वो मुस्कुराने की ,
बाद मुद्दत के क़लम अपनी मुस्कुराई थी ,
तुमसे पहले तो ज़िन्दगी थी, एक स्यापा सी,
तुमसे पहले तो इक दुश्मन सी ये खुदायी थी ,
तुम तुमन आओगे तो फ़िर मायूसियां वही होंगी ,
और तेरा गम ये , न इस बार मुझे डस जाए ।
तुमको मंज़ूर नहीं ग़र मेरा यूँ लिखना तुम पर ,
ठीक है ये ही सही , अब ये भी कर ही जायेंगे ,
एक इकलौती ,अकेली खुशी ने लिखवाया ,
गम तो अनगिन हैं भला क्यूँ नहीं लिखवायेंगे ,
तुम न आओगे तो फ़िर वो ही लिखा जाएगा ,
आँख नम ही न रहे जिससे ,छलक ही जाए ।
तुम न आओगे तो दीवाना कहाँ जायेगा ,
तुम से होकर ही निकलती है हरेक राह मेरी ,
तुम न आओगे तो न चैन से रह पाओगे ,
तुमको ख़्वाबों में जगायेगी हरेक आह मेरी ,
तुम न आओगे तो फ़िर कैसे जिया जायेगा ,
तुम ही बतलाओ कोई कैसे ख़ुद को समझाए ।
तुम न आओगे तो बेमानी है सबका आना ,
तुम न आओगे तो बेकार हैं सारी बातें ,
तुम न आओगे तो कोई दिन न सुनहरा होगा ,
और मनहूस लगेंगी ये चांदनी रातें ,
तुम न आओगे तो 'संजीव ' मर ही जायेगा ,
बिन तुम्हारे यहाँ जीना है अब किसे भाये ।
तुम हो रूठे हुए या शरमाये ?

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

ज़िन्दगी राम का बनवास नहीं है.......

रंजो ग़म के हर तरफ़ है राक्षस ,
हर घड़ी -हर पल सिरफ़ संत्रास है ,

ज़िन्दगी राम का बनवास नहीं है ,
ज़िन्दगी सीता का लंकावास है ,

वक्ते-बद हंसता है , बैठ रावण सा ,
अच्छे समय के राम की बस आस है ,

उम्मीद के लक्ष्मण हैं धरती पर पड़े ,
ज़िन्दगी तनहा , बहुत उदास है ,

हौसले का वानर भी आया नहीं ,
मुंदरी दिलासे की उसीके पास है ,

पिछले जनम के पाप बन गए मंथरा ,
ये सब लगाई उसकी ही तो आग है ,

पर, असुरों से ये दुर्दिन जलाए जायेंगे ,
उम्मीद ने छोड़ी न अब तक साँस है ,

दस सर का ये बद वक्त माना है प्रबल ,
अच्छे समय का तीर इक पर्याप्त है ,

अच्छा समय भी ज़िन्दगी को ढूंढता है ,
उसके दिल में भी चुभी ये फाँस है ,

एक दिन होगा मिलन फ़िर से वही ,
वक्त का लगना अलग एक बात है ,

'संजीव' वक्त अच्छे बुरे की जंग में ,
जीतेगा वो जिस पर बड़ा विश्वास है ।